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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५७७ ॥ देशविरतके हैं। तहां जिस देशकी मर्याद करि बैव्या होय तहाते प्रयोजनके वश” अन्यकुं कहिकरि किछू वस्तु अन्यक्षेत्रतें मंगावणा, सो आनयन है। बहुरि अन्नकू कहना, जो, तुम ऐमें करौ, सो प्रेष्यप्रयोग है । बहुरि आप मर्याद करि जिस क्षेत्रविर्षे बैठे, तहां बैठाही बाहिरके फिरनेवाले पुरुषनिकं खासी खंधार आदि शब्दकी समस्याकरि प्रयोजन समझाय देना, से शब्दानुपात है। बहुरि तैसेंही अपना शरीररूप दिखाय समझाय देना, सो रूपानुपात है। बहरि तैसेही किछु कंकर आदि बगाय समझाय देना, सो पुद्गलक्षेप है। ऐसें ए देशविरमणके अतीचार हैं। आगे अनर्थदंडविरतिके अतीचार कहै हैं॥ कन्दर्पकोत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥ ३२॥ याका अर्थ- कंदर्प कौत्कुच्य मौखर्य असमीक्ष्याधिकरण उपभोगपरिभोगअनर्थक्य ए पांच अतीचार अनर्थदण्डविरतिके हैं। तहां रागके तीव्रउदयतें जामें हास्य मिली होय ऐमा नीच हीन मनुष्यके कहनेका गाली आदि भंडवचन पैलेकू कहना, सो कंदर्प है। बहुरि हास्यके गालीस हित वचन भी कहै अर कायके चेष्टातें निंदायोग्य क्रियाभी करै जाळू लौकिकमें खवाखसी आदि है। कहै हैं, सौ कौत्कुच्य है । बहुरि धीठपणा लिये बहुत प्रलापरूप वकवाद करना, सो मौखर्य है । aloneticinetertainedirector ముందుకు For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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