SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 585
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५६७॥ ॥मारणान्तिकी सल्लेखनां योषिता ॥२२॥ ___ याका अर्थ-- मरणके अंतसंबंधी जो सल्लेखना ताहि सेवनेवालाभी यह श्रावक होय है । तहां अपने परिपाककू प्राप्त भया जो आयुकर्म ताका बहुरि इन्द्रियप्राण तथा बलप्राण इनका कारणके वशतें क्षय होना, सो मरण कहिये । ताका जो तिस भवसंबंधी अंत ताकू मरणांत कहिये, सो मरणांत है प्रयोजन जाका सो मारणांतिकी कहिये । बहुरि भलेप्रकार बाह्य तौ कायका तथा अभ्यंतर कषायका लेखना कहिले अनुक्रमतें तिनके कारणनिके घटावनेकरि कृश करना सो सल्लेखना कहिये । ऐसी मरणके अंतसंबंधी सल्लेखना ताहि जोषिता कहिये सेवनेवाला गृहस्थ श्रावक होय | है । इहां कोई कहै है, जो, जोषिताशब्द कह्या सो सेविता ऐसा स्पष्ट प्रगट अर्थरूप शब्द क्यों न कह्या? ताईं कहिये, जो इहां सेविता न कहना, जातें जोषिता कहने में अर्थका विशेष बणै है। केवल सेवनाही न ग्रहण कीया है। डहां प्रीतिकाभी अर्थ है। प्रीतिविना जोरीने सल्लेखना | न करनी । सल्लेखना प्रीति होतें आपही करै है। तातें जोषिताशदमें प्रीति अरु सेवना दोऊ अर्थ भी हैं। बहुरि कोई तर्क करै है, जो, यह हम मान्या, परंतु यामें आत्मघातकी प्राप्ति आवै है । जाते | अपने अपने अभिप्रायपूर्वक आयुआदि प्राणनिकी निवृत्ति करै है । आचार्य कहै हैं, यह इहां दोष | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy