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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५६५ ॥
अर्थि उद्यमी संयमीविर्षे तत्पर प्रवीण शुद्धआचारी जो अतिथि ताकै अर्थि शुद्धमनकरि निर्दोष भिक्षा भोजन आहार देना । बहुरि धर्मके उपकरण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रके वधावनेवाले देणें । बहुरि औषधभी योग्य देणी । बहुरि परमधर्मकी श्रद्धाकरि वसतिकाभी बनावणी। बहुरि सूत्रमें चशद है सो आगे कहसी जो गृहस्थधर्म ताके समुच्चयके अर्थि है ॥
इहां ऐसाभी विशेष जानना, जो, ग्यारह प्रतिमाके अनुक्रममें दूजी व्रतप्रतिमा है तामें | पंचअणुव्रतके अतीचार तौ सोधैही हैं। बहुरि ए सप्तशील कहे तिनका आचरण यथाशक्ति है | तिनमें अतीचारभी लागै हैं । बहुरि तीजी प्रतिमा सामायिक नाम है, तहां सामायिक अतीचाररहित पले है। बहुरि चौथी प्रतिमा प्रोषधोपवास नामा है, तहां प्रोषधोपवास अतीचारहित पलै है । बहुरि पांचमी प्रतिमा सचित्तत्याग नाम है, तहां उपभोगपरिमाण नामा शील है ताके अतीचार सोधै है। तहां संचित्तका भक्षणका तो त्यागही करै है, बहुरि अन्यकार्यभी सचित्तसूं | यत्नपूर्वक करे है । इहां सतरह नियमकी प्रवृत्ति अवश्य होय है । बहुरि छठी प्रतिमा रात्रिभोजनका | त्याग दिवा स्त्रीसेवनका त्याग है, सो यहभी उपभोगपरिभोगके परिमाणके अतीचार सोधनेहीका || विशेष है । तहांताई जघन्यश्रावक कहिये ।
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