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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५२१॥ केवलज्ञान श्रुतज्ञान है दिव्यनयन जिनकै ऐसे अरहंत अर आचार्य तथा परके हितकार्यविर्षे प्रवर्तते स्वपरमतके शास्त्रनिका विस्तारसहित निश्चय करनेवाले ऐसे बहुश्रुत उपाध्याय तथा मोक्षरूप महलके चढनेकी पैडी सारिखी सुन्दर रचनारूप बहुरि श्रुतरूपी देवताकी सेवाविना जाका चढना दुर्लभ है ऐसा जो प्रवचन इन च्यारिनिविर्षे मन वचन कायनिकी भावनिकी विशुद्धतासहित अनुराग, सो इनकी भक्ति है । ऐसे ये च्यारि भावना भई ॥ १३ ॥ . छह आवश्यकनिका यथाकाल प्रवर्तन करना, तहां चित्तकू एकाग्रकरि ज्ञानहीविर्षे लगावणा | ऐसें सर्वसावद्ययोगकी निवृत्ति करना, सो सामयिक है। तीर्थकरनिके पवित्रगुणनिका कीर्तन | करना, सो चतुर्विंशतिस्तव है। दोय आसन, च्यारि शिरोनति, बारह आवर्त, मन वचन कायकी | शुद्धताकरि करना सो वंदना है । अतीतकालके लगे दोषनिकू यादिकरि तिनतें निवर्तन करना, । सो प्रतिक्रमण है । आगामी काल दोषनका निषेध करना त्याग करना, सो प्रत्याख्यान है। कालकी मर्याद करि शरीरविर्षे ममत्व छोडना, सो कायोत्सर्ग है । इन छह आवश्यकनिकी क्रिया | कालकी काल करणी, हानि न करणी, उद्धतपणाकरि भूलणी नाहीं, सो आवश्यकापरिहाणि है ॥ १४ ॥ परमतरूप अज्ञाननिका प्रकाश तिरस्कार करणहारी जो ज्ञानरूप सूर्यकी प्रभा ताकरि For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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