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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir ॥ सर्वार्थासद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५१७ ॥ आगें, शुभनामकर्मका आश्रव कहा एतावन्मात्रही है, कि कोई औरभी विशेष है ? ऐसे है। पूछे इहां कहै कि, जो, यह तीर्थकरनामपणां नामा नामकर्म है, सो अनंत अनुपम प्रभावकू लिये है, बहुरि अचिंत्यविभूतिविशेषका कारण है, तीनि लोकविर्षे विजय करणहारा है, सर्व त्रैलोक्यके इन्द्रादिकरि पूज्य है, ताका आश्रवकी विधि विशेषरूप है। तहां फेरि पूछे है, जो, ऐसा है तो कहो ताके आश्रवके कारण केते हैं ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं ॥ दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगो .. शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥९४॥ याका अर्थ- ए सोलह भावना हैं ते तीर्थंकरनामा नामकर्मके आश्रव हैं। तहां जिनभगवान् अरहंतपरमेष्ठीका उपदेश्या कह्या जो निम्रन्थलक्षण मोक्षमार्ग ताविर्षे रुचि प्रतीति श्रद्धा सो | दर्शन कहिये, ताकी विशुद्धि कहिये पहले कही निरतिचारपणा सो जानना । याके आठ अंग हैं निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टिता, उपबृंहण, स्थितीकरण, वात्सल्य, | प्रभावना ऐसें । तहां इहलोक परलोक व्याधिवेदना मरण अरक्षण अगुप्ति अकस्मात् ए सात भय For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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