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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५१६ ॥ मद करना, कठोरवचन बोलनें, बुरा प्रलाप वकना, परकू वश करनेकू अपना सौभाग्य दिखावना, परफू कुतूहल उपजावना, सुन्दर अलंकार पहरने, चैत्यमंदिरके उपकरणपूजाकी सामग्री चोरना, परकू वृथा विलमाय राखना, परका उपहास करना, इंटनिके पजावा पकावने, दो लगावना आदि अनिका प्रयोग करना, प्रतिमा तथा ताका आयतन कहिये मंदिर तथा वनकी वस्तिका बाग आदिका विनाश करना, तीन क्रोध मान माया लोभविषं प्रवर्तना, पापकर्मकी आजीविका करनी इत्यादि जानने ॥ आगें शुभनाकर्मका कहा आश्रव है ऐसे पू● सूत्र कहै हैं ॥ तद्विपरीतं शुभस्य ॥ २३ ॥ याका अर्थ- अशुभनामकर्मका आश्रव कह्या तातें विपरीत कहिये उलटा शुभनामकर्मका आश्रव है । तहां काय वचन मनका सरलपणा बहुरि अविसंवादन ए तद्विपरीत हैं । बहुरि पहले चशब्दकरि समुच्चय किये थे तिनके विपरीत लेणे । धर्मात्मा पुरुषनिका दर्शन करना, तिनका | आदर सत्कारकरि अपने हितू मानने, संसारतें भय करना, प्रमादका वर्जन करना इत्यादिक ए शुभनामकर्मके आश्रवके कारण जानने । इहांभी पूर्व विशेष कहे तिनतें उलटे जान लेंणे ॥ exasaberdasvertopseartBeatsubisaactreANODesaitab For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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