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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir oppingPRAJAPPOINCIPLEXPOPANISPAarAgaspaper ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४२६ ॥ याका अर्थ- लोकका असंख्यातवां भाग आदिविर्षे जीवनिका अवगाह है। इहां लोकशब्दकी तो अनुवृत्ति है । तिस लोकका असंख्यातभाग कीजे, तामें एकभागकू असंख्यातवां भाग कहिये । तिसकू आदि लेकर लोकपर्यंत जानना । सोही कहिये हैं, एक असंख्यातवां भागविर्षे एकजीव तिष्ठै ऐसें दोय भाग, तीनि भाग, चारि भाग इत्यादि असंख्यात भागवि सर्वलोकपर्यंत एकजीवका अवगाह जानना। संख्यातके संख्यात भेद हैं। तात असंख्यातवां भागकेभी प्रदेश असंख्यातही जाननें । बहुरि नानाजीवनिका सर्वलोकही है । इहां प्रश्न, जो, एक असंख्यातवां भागमें एक जीव तिष्ठे तो द्रव्यप्रमाणकरि जीवराशि अनंतानंत हैं, ते शरीरसहित कैसैं लोकविर्षे तिष्ठे? ताका समाधान, जो, सूक्ष्मवादरके भेदतें जीवनिका अवस्थान जानना ॥ तहां बादर तो परस्पर सप्रतीघातशरीर हैं, जिनका शरीर परस्पर रुकै है । बहुरि सूक्ष्म हैं ते शरीरसहित हैं तौभी सूक्ष्मभावतें एकनिगोदजीवकरि अवगाहनेयोग्य जो क्षेत्र ताविर्षे साधारणशरीरसहित अनंतानंतजीव वसैं हैं, ते परस्परभी अरु बादरजीवनितेंभी व्याघातरूप न होय हैं, तातें अवगाहविर्षे विरोध नाहीं आगें प्रश्न, जो, एकजीव लोकाकाशके प्रदेशनिकै तुल्य असंख्यातप्रदेशी है । सो सर्वलोकमें | व्याप्ति चाहिये, लोकाकाशके असंख्यातवां भाग आदिविर्षे अवगाह कैसें कह्या? ऐसें पूछे सूत्र कहें हैं Srawsreertisatirseradoreritesertebraertairsericases For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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