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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४०४ ॥ | है, दूसरा आदि प्रदेश जाकें नाहीं है, तातै ताकू अप्रदेशी कहिये है, तैसें कालका परमाणुभी एकप्रदेशमात्र है, तातें ताकू अप्रदेशी कहिये है ॥ बहुरि तिन धर्मआदि द्रव्यनिकी अजीव ऐसी सामान्यसंज्ञा है, सो यह संज्ञा जीवलक्षणकरि रहितपणातें प्रवर्ते है । बहुरि धर्म अधर्म आकाश पुद्गल ऐसी विशेषसंज्ञा है सो इनमें जैसा | विशेषणगुण है ताका संकेत अनादित सर्वज्ञपुरुषकृत है तिस संकेत प्रवर्ती है, वहू संज्ञा सार्थिक है । समस्त जातें गमन करते जे जीवपुद्गल तिनकू काल गमनसहकारी है । ऐसें लक्षणकू धारणेते धर्म ऐसी संज्ञा है । बहुरि इसते विपरीत जो जीवपुद्गलकू स्थानसहकारी एककाल है, तातें धर्मके लक्षण नाही धारणेते अधर्म है। बहुरि समस्तद्रव्य जामें एककालविर्षे अवकाश पावें तथा आप अवकाशरूप है, तातें आकाश ऐसी संज्ञा है । बहुरि तीनि कालविर्षे पूरै तथा गलै ते पुद्गल हैं। ऐसे सार्थिकभी नाम बणे है । बहुरि अन्यवादी सांख्य कहै हैं, अजीव एक प्रधानही है। ताईं प्रकृतिहू कहै है । सो यह प्रमाणबाधित है । तातें अजीव भिन्नलक्षणस्वरूप जुदेजुदे बहुत बणै हैं । एकहीकी सिद्धि नाहीं । बहुरि जे पुरुष अद्वैत मानें हैं, ते अजीवतत्त्वही न कहें हैं । तिनका || मत तो प्रत्यक्षविरुद्धही है। अजीवपदार्थ पुद्गलादि नाना प्रत्यक्षसिद्ध है। बहुरि तिनकुं अनित्य For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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