SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org || सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता । चतुर्थ अध्याय || पान ३९४ ॥ पहले सूत्र कम थोरे अक्षरनिमें कही जाय है, तातैं इहां ताकूं कहनेकूं सूत्र कहै हैं॥ नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥ ३५ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir याका अर्थ - इहां चशद्ध है सो इसतें पहले सूत्र का ताका समुच्चयके अर्थ है । तातें अर्थ होय है, जो, रत्नप्रभाविषै नारकीनिकी उत्कृष्टस्थिति एकसागरकी कही है, शर्करा - भावि जघन्यस्थिति है | बहुरि शर्कराप्रभाविषै उत्कृष्टस्थिति तीनि सागरकी कही है, सो वालुकाप्रभावि जयस्थिति है । ऐसेंही महातमःप्रभा सातवी पृथ्वीताई जानना || आगें दूसरी आदि पृथिवीविर्षे जघन्यस्थिति कही, तो पहली पृथिवीविषै जघन्यस्थिति कहा है ? ऐसें पूछै ताके दिखावनेकूं सूत्र कहै हैं- ॥ दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥ ३६ ॥ यांका अर्थ-- इहां अपरा शब्दकी अनुवृत्ति है । तातें जघन्य जानती । सो पहली पृथिवी रत्नप्रभाविषै नारकीनिकी जघन्यस्थिति दशहजारवर्षकी है ॥ आगे भवनवासी देवनिकी जघन्यस्थिति कही सो सूत्र कहै हैं ॥ ॥ भवनेषु च ॥ ३७ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy