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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ।। पान ३७६ ॥ कल्पोपपन्न हैं । बहुरि अवेयक आदिविर्षे उपजें ते कल्पातीत कहिये । आगें तिनका अवस्थानविशेष जाननेके अर्थि सूत्र कहें हैं-- ॥ उपर्युपरि ॥ १८॥ याका अर्थ-- यहु सूत्र तिन वैमानिकदेवनिका तिर्यगवस्थानके निषेधके अर्थि है। ते ज्योतिषीनिकीज्यों तिर्यक् अवस्थित नाहीं हैं। बहुरि व्यंतरनिकीज्यों विषम जहांतहां अवस्थित नाहीं हैं । ते कल्प उपरि उपरि हैं ॥ ___ आगें पूछे हैं, जो, ऐसे हैं ए उपरि हैं, तो केते कल्पविमानविर्षे देव हैं? ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं॥ सौधर्मशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रनोत्तरलान्तवकापिष्टशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेप्यानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ १९॥ याका अर्थ- इन सौधर्मादिक शब्दनिका कल्प नाम कैसे भया सो कहैं हैं। व्याकरण विर्षे अण् ऐसा प्रत्यय है, सो च्यारि अर्थमें होय है। ताकरि कल्प नाम होय । तथा स्वभावहीतें. ऐसा नाम है । बहुरि इन्द्रकामी नाम यहही, सोभी स्वभावतें तथा कल्पके साहचर्यतें होय हैं | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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