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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ettiverabredet www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३२७ ॥ अर्थ- सतरि लाख कोडी वर्ष बहुरि छपनहजार कोडि वर्ष एक पूर्व होय है ॥ आगे, कह्या जो भरतक्षेत्रका विस्तार ताकूं अन्यप्रकारकरि कहै हैं ॥ भरतस्य विष्कम्भो जम्बूहीपस्य नवतिशतभागः ॥ ३२ ॥ याका अर्थ - जंबूद्वीपका विस्तार लाख योजनका है। ताकै एकसो निवै भाग करिये तिनिमैं एक भाग मात्र विस्तार भरतक्षेत्रका है । सो, पूर्वे का पांच छवीस योजन छह कला परिमाण हो है ॥ आगें, कह्या था, जो, जंबूद्वीपकूं वेढिकरि वेदी तिष्ठै है, तातें परे लवणसमुद्र दोय लाख योजन विस्ताररूप वलयाकार तिष्ठै है, तातैं परै धातकीखंड द्वीप च्यारि लाख योजन वलयविस्ताररूप है | तहां क्षेत्र आदिककी संख्याकी विधिका ज्ञानके अर्थि सूत्र कहा है॥ द्विर्धातकीखण्डे ॥ ३३॥ याका अर्थ - इहां भरतादिक्षेत्रनिका फेरि कहनां विवक्षित । तहां पूछे है, जो दिशपरि सुप्रत्यय कैसैं कीया ? तांका उत्तर जो, इहां क्रियाका अध्याहार करना है । ताके जनावनेकूं सुप्रत्यय कीया है । जैसे कोईक महलकूं दूजे महलका परिमाण कहना होय तहां ऐसें For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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