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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३२३ ॥ NAGARPOROSPerpaspresppppaMORRONMEASPANIPORN क्षेत्रतांई जानने । हिमवत्कुलाचल एक हजार बावन योजन बारा कला है। हैमवतक्षेत्र इकईससे पांच योजन पांच कला है । महाहिमवान् कुलाचल च्यारि हजार दोयसै दश योजन दश कला है हरिक्षेत्र आठ हजार च्यारिसैं इकईस योजन एक कला । निषध कुलाचल सोला हजार आठसै बयालीस योजन दोय कला । विदेहक्षेत्र तेतीस हजार छहस चौराशी योजन च्यारि कला । ऐसा जानना ॥ आगें, अगिलेनिका विस्तार कैसे है ? ऐसे पूछ सूत्र कहै हैं-- ॥ उत्तरा दक्षिणतुल्याः ॥२६॥ याका अर्थ-- उत्तरा कहिये ऐरावतादिक नीलकुलाचलताई ते भरतादिक जे दक्षिणकी तरफके तिनिके तुल्य कहिये समान हैं । यहु विशेष- पहले कहे जे द्रह तथा कमल तिनिकै सर्वकै दक्षिणदिशातुल्य उत्तरदिशाके जानि लेने ॥ आगै पूछे है कि, कहे जे भरतादि क्षेत्र तिनिके मनुष्यनिकै अनुभव आयु काय भोगोपभोगादिक सदा तुल्य हैं, कि किछू विशेष है ? ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं ॥ भरतैरावतयोवृध्दि हासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ॥ २७॥ याका अर्थ- वृद्धिन्हासौ कहिये वधना घटना सो भरत तथा ऐरावतक्षेत्रनिविर्षे तिष्ठते मनुष्य For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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