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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३०८ ॥ भये हैं तथापि निदानादिकरि अज्ञान तपका फलते इनिकू परका दुःख आदि अशुभही हर्षका कारण हो है । बहुरि चशब्द है सो पहले सूत्रमैं कह्या जो दुःख, ताकै समुच्चयकै अर्थि है । तीव्र तपाया गाल्या जो लोह ताम्र ताकौ पायवाकरि, बहुरि तपाया लोहका स्तंभ" चेपनां, बहुरि कूटशाल्मली कहिये सूली तापरि चढाय उतारणा, बहुरि लोहके घनका घात करनां, कुहाडी छुराव सोलाते काटणां छोलणां, बहुरि क्षारा पाणी तथा ताते तेलते सीचनां, बहुरि लोहके कडाहमैं | पचावनां, भांडमें भूदनां, बहुरि भोभलीमैं भुलसनां, बहुरि वैतरणी नदीमें डबोवनां, घाणीमें | पीलना इत्यादिकनिकरि नारकीनिकू दुःख उपजावै हैं । ऐसे छेदनभेदनादिकरि शरीर खंड खंड | होय जाय है । तौभी आयु पूर्ण हूवाविना मरण नाही होय है । जातें नारकीनिका आयु अनपवर्त्य कह्या है , सो छिदै नांही ॥ आगें पूछे है, “जो इनि नारकोनिका आयु छिदै नांही सो आयुका परिमाण केता है सो कहौ " ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं-- ॥ तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशहाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ॥६॥ याका अर्थ- नरकके जीवनिकी आयू उत्कृष्ट पहली पृथिवीमैं तो एक सागरकी, | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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