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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २८१ ॥ बहुरि अणिमादिक आठ गुण तिनिका ईश्वरपणाका योग एक अनेक छोटा बडा शरीर अनेकप्रकार करणां सो विक्रिया कहिये । सोही है प्रयोजन जाका ताकूं वैक्रियिक कहिये | बहुरि सूक्ष्म पदार्थका निर्णय के अर्थि तथा असंयमके दूरि करने की इच्छा करि प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनिकरि रचिये सो आहारक है । बहुरि तेजका कारण अन्य देहकूं दीप्तिरूप करनेको निमित्त तथा तेजके विषै या सो तैजस है । बहुरि कर्मनिका कार्य सो कार्मण है । कर्मके कार्य सर्वही शरीर है परंतु रूढी के वश किशेषपणकार कार्मणही कूं कर्मका कार्यरूप निरुक्ति करी है । इहां कोई पूछे, अन्यशरीरकूं कार्मण निमित्त है बहुरि कार्मणकूं कहा निमित्त है ? ताका समाधान, जो, कार्मणकूं कार्मणी निमित्त है । अथवा जीवके परिणाम मिथ्यादर्शनादिक निमित्त हैं | आगे जैसे औदारिककी इंद्रियनिकरि उपलब्धि है यह इंद्रियनिकरि ग्रहण होय है तैसें अन्यशरीका ग्रहण काहे न होय है ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं ॥ परं परं सूक्ष्मम् ॥ ३७ ॥ । याका अर्थ -- औदारिकतें अगिले अगिले शरीर सूक्ष्म हैं है । तौभी विवक्षा व्यवस्थार्थके विषै गति है । बहुरि वीप्सा कहिये For Private and Personal Use Only इहां परशब्दका अनेक अर्थ दोयवार परशब्द कह्या सो
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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