SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २५७ ।। याका अर्थ- द्वींद्रियजीवन आदि देकरि तेइंद्रिय चौइंद्रिय पंचेंद्रिय ऐसे त्रसजीव हैं ॥ दोय हैं इंद्रिय जाकै ताकू द्वींद्रिय कहिये । बहुरि द्वींद्रिय हैं आदि जिनिकै ते दींद्रियादिक कहिये । इहां आदिशद्ध है सो आगमवि इनिकी व्यवस्था है, ताका वाचक कहिये हैं । दींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय पंचेंद्रिय ऐसै । इहां तद्गुणसंविज्ञान समासका ग्रहण है । तातें दींद्रियकाभी ग्रहण करनां । जाते या समासमैं आदिकाभी पदार्थ ग्रहण हो है । बहुरि पूछे है , इनिके प्राण केते केते हैं ? तहां कहिये हैं। दींद्रियके छह प्राण हैं। च्यारि तौ एकेंद्रियकै पहलै कहे तेही लैणे । बहुरि रसना इंद्रिय बहुरि वचनबल ये दोय अधिक कीये छह भये । बहुरि त्रींद्रियकै घ्राण इंद्रियकरि अधिक सात प्राण हैं। बहुरि चतुरिंद्रियके चक्षु इन्द्रियकरि अधिक आठ प्राण हैं। बहुरि पंचेंद्रियके तिर्यचनिविर्षे असंज्ञीकै तो कर्ण इंद्रियकरि अधिक नव हैं । बहुरि संज्ञीके मनवलकरि अधिक दश प्राण हैं । ऐसे पांच सूत्रनिकरि सर्व संसारी जीव कहै । इहां कोई पूछे, विग्रहगति अंतरालमें इंद्रिय नाही तिनिका ग्रहण कैसे भया? तहां कहिये, जो, त्रसस्थावर नामकर्मका उदय विग्रहगतिमें भी है। तिस विना होय तो मक्तजीव ठहरै, तातें तेभी आय गये || आगैं, दींद्रिय आदि ऐसा कह्या तहां आदिशब्दमैं कहांतांई गिणनां? ताकी संख्याकी Exantertaircrisireatipratireritairerikasexseries For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy