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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २५६ ॥
होय ऐसा जीव ताक् पृथिवीकायिक कहिये । सो यहु, पृथिवी शरीरके संबंधसहित है । बहुरि पृथिवीकायनामानामकर्मकी प्रकृतिका जाकै उदय आया अन्यकायके शरीरतें छूट्या जेतें पृथिवीकाय शरीर नांही ग्रहण कीया जेतें अंतरालमै कार्मणयोगमैं तिष्ठे तेतें ताळू पृथिवीजीव कहिये । ऐसेंही अप्कायादिकवि अर्थ लगा लेणां ॥ ए पांच स्थावरजीव हैं। तिनिकै प्राण च्यारि । स्पर्शनेंद्रियप्राण , कायवलप्राण, उच्छ्वासनिश्वासप्राण, आयुप्राण ऐसें ॥ इहां विशेष जो, केवलज्ञानतें लगाय अनादिकर्मसंयोगः घटतें घटते ज्ञानका अपकर्ष करिये तब सूक्ष्मज्ञान एकेंद्रियनिकै रहै है । इहां प्रश्न, जो, घटतें घटते जडही क्यों न रह्या ? ताईं कहिये घटना तो आपहीविर्षे कहिये । जड तो अन्य द्रव्य है । जातें प्रध्वंसाभाव सत्वहीकै कहिये । बहुरि सत्त्वका अत्यंत अभावभी युक्त नांही । कोई कहै, कर्मका अत्यंत अभाव कैसे है ? ताकू कहिये कर्मरूप पुद्गल भये थे तिनिका कर्मभावका नाश होय पुद्गलपरमाणूंनिका तौ अभाव न भया । ऐसें एकेंद्रियनिवि ज्ञानका परम अपकर्ष निश्चय कीजिये । तातें स्थावरजीवनिका सद्भाव युक्त है । आगें कहै हैं, जो, त्रसजीव कोन हैं? ऐसे पूछ सूत्र कहै हैं
॥ हीन्द्रियादयस्त्रसाः॥१४॥
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