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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १७३ ॥ कहा प्रयोजन है? ताकू कहिये इहां क्षयोपशमका ग्रहण नियमकै अर्थि है । इहां क्षयोपशमही निमित्त है, भव नांही है ॥ सो यह अवधि छह भेदरूप है। अनुगामी अननुगामी वर्धमान हीयमान अवस्थित अनवस्थित ऐसे छह भेद हैं। तहां भवांतरळू गमन करता जो जीव ताकी लारही अन्यभवमें साथि सूर्यके प्रकाशकीज्यों चल्या जाय सो तो अनुगामी कहिये । बहुरि जो भवांतरमैं साथि न जाय जिस भवमें उपजे तिसहीमें रहजाय, जैसें पूठि पीछे प्रश्न करनेवाला पुरुषका वचन परके हृदयमें | प्रवेश न करै तैसें यह अवधि जाननां सो अननुगामी कहिये । बहुरि जो सम्यग्दर्शनादिगुणरूप विशुद्धपरिणामनिकी वृद्धि होनेरौं जिस परिणामकू लीये उपज्या तातें वधताही जाय असंख्यातलो. कपरिमाणस्थानकनिताई वधै जैसें बांसनिकै परस्पर भिडनेते उपज्या जो अमि सो सूके पत्रादिक संचयरूप भया जो इंधनका समूह तापरि पड्या हुवा वधताही जाय तैसें यह अवधि वर्धमान कहिये । बहुरि जो सम्यग्दर्शनादिगुणकी हानिरूप जो संक्लेशपरिणाम तिनिकी वृद्धीके योगते जिस परिमाणकू लीये उपज्या होय तातें घटताही जाय अंगुलकै असंख्यातवै भागमात्र स्थानकनिताई घटै जैसें परिमाणरूप है उपादानका संतान जाका ऐसा जो अग्नि ताकी शिखा घटतीही जाय तैसें Utsapseexksisatirexitsixsaksibeerisatireezits? For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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