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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ श्रीसामाचारी समाश्रितं-श्रीसप्तपदो शास्त्रम् . वंदणयतिगं भणियं, बहुसु मुत्तेसु वित्तिचुन्नीसु । कहमपमाणं किज्जइ, वारिजइ केण तं भणह ॥१०४।। अथवा-पच्छाउत्तं बलियं, पुचि चत्तारि तिनि पच्छाय । एएण कारणेणं, पच्छाउत्तं पमाणंति ।।१०५॥ यत:-पूर्वोक्तपरोक्तयोः परोक्तो विधिबलवान् ।। तथा पुन:-सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् । परेण पूर्वबाधो वा, प्रायशो दृश्यतामिह ॥१॥ इतिवचनात् ॥ तथा प्रथमपदाद् द्वितीयपदं श्रेष्टमिति वचनात् इति पूर्वाचार्यप्रणीताक्षरैः चत्वारि वंदनकानि प्रति प्रतिक्रमणे इत्युकत्वा पुनवेदनकत्रयविधिर्दर्शित इतिहेतोः प्रतिक्रमणद्वय वंदनकत्रिकत्रिकमेव प्रमाणं पुनर्गीतार्था वदंति तदेव सत्यं ।। मूल-एवं पडिक्कमित्ता, कालं पाउसियं पगिणंति । सुयभासियेण विहिणा, वसहि कालं पवेयंति ।।१०६॥ पच्छा ते उवउत्ता, सज्झायं पढवित्तु सज्झायं । कुव्वंति जाव पत्तं, जाणंति य पोरिसं पढमं ॥१०७॥ अह उद्वित्ता एगो, बहुपडि पुन्नाय पोरिसी भयवं । इय भणिय गुरुं वंदिय, कुणंति चिय वंदणं मुणिणो ॥१०८॥ पडिकमिय पुवकालं, सज्झाय चेव अट्ठरत्तं तु । कालं गिणिय विहिणा, सुत्तसत्थं विचितंति ॥१०९।। धम्मज्झाणोवगया, उवउत्ता सबभाव भावणिया। हियए धरति अत्थं, जहगहियं गुरुसमीवंमि ॥११०॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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