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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि प्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. २७ www मूल-उद्धठिएहि थुइउ, सक्कथय तहय उवनिविटेहिं । भणिऊण काउस्सग्गांतर. थुइ लोगाइ थुइ रहियं ॥५९॥ एवं मुयाणुसारा, विहिणा चियवंदणं च कायव्वं । जं अन्नहावि दीसइ, गच्छायरणाइ तं नेयं ६०॥ अट्टथुइ पंच सकथर, काउस्सग्गलोग सव्वाई। सिद्धंतो थुइ पाढो, सुत्ते चिइ वंदणं न इमं ॥६१॥ नाणाऽविरयसुरेसु, चेइय सद्दो न संमउ समए । नाणस सुरसुरीणं. नहु अरिहत्तंपि संभवइ ।।२।। चेइय बंदण समए, परसिं इथ्थ नथ्थि अहिगारो । पढमोवंगे अंगे, तइए तह पंचगंगंमि ॥६॥ भणिर्ड काउन्सग्गो, पच्छित्तं दसविहमि पच्छित्ते । पच्छित्तिय खयट्ठाणे, किमागय इत्थ पच्छित्तं ॥६॥ यत:-श्री औषपातिकोपांगे, १ स्थानांगे. २ भगवत्यंगे. ३ च__ “से कि तं पच्छित्ते पच्छित्ते दसविहे पन्नत्त तंजहा-आलोयणारिहे पडिक्कमणारिहे तदुभयारिहे विवेगारिहे विउस्सग्गारिहे तवारिहे छेदारिहे मूलारिहे अणवठ्ठप्पारिहे पारंचियारिहे" इति ॥ पंचमं प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः स तु देववंदनाधिकारे कथं स्यादिति पुनर्गीतार्था निरीहा वदंति तदेव प्रमाणं । मूल-मुत्तुत्तं मुलूणं, पुवायरियेहिं एयमायरियं । केणावि कारणेणं, तत्तं तु त एव जाणंति ॥६५॥ जे पुण आगमविहिणा, देवे वंदंति भावसुद्धीए । तेसिं च हीलणा जा, सा कि जुत्तत्ति तं भणह ॥६६॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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