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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रमरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५० मुं. १३
यत:-श्रीमहानिशीथे-“दुप्पसहं जाव गच्छ मेरा नाइकमेयवा-"
इति वचनात् ।। अथ साधूनामाचार:मूल-सम्मइंसणरत्ता, उज्झुत्ता चरण करण गुण गहणे ।
आगम मग्गणुलग्गा, भव भय भीया मुणी धन्ना ॥१४॥ सिरिवीरजिणिदेणं, गोयमपमुहाण एवमाइई ।।
बारसवास सएहि, गएहि पन्नास अहिहेहि ॥ १५ ॥ साहूणं अनुन्नं, भेउ होही न इथ्य संदेहो ।
मह सासणंमि जाणह,महानिसीहमि भणियमिणं ॥१६॥ यदुक्तं-श्रीमहानिशीथे
"से भयवं केवइएणं कालेणं प(हे) यडे कुगुरू होहंति ? ___ गोयमा ! इउय अद्धतेरसण्डं वाससयाणं साइरेगाणं समइकंताणं परउ भविस्संति । से भयवं केणं अटेणं ? गोयमा ! तकालं इड्डीरस सायगारवसंगए ममीकार अहंकारग्गीए अंतो संपज्झलितबोंदी अहमहंति कयमाणसे अमुणिय समय सम्भावे गणी भविहेति । एएणं अटेणं सो एवं विहे तकालं गणी भविस्संति, गोयमा ! एगते णं नो सव्वे !! " इति वचनात् ॥ मूल-तेणं संपइ दीसइ, पिहु पिहु गच्छेसु भिन्न आयारो ।
तथ्यवि जं जिणवयणाणु,-सारउ तं पमाणंति ॥ १७॥ किल्झइ गच्छायारो, भन्नइ नियनिय गुरूहि आइन्नो ।
नहु सुतं दूसिज्झइ, भूसिज्झइ तेहि जिणधम्मो ।। १८ ।।
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