________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१८०
श्रीस्थापना पश्चाशिका।
वंदे, एगग्गो भत्तिनिन्भरं ॥१॥" अइनिहोस एयं, न हु मनिज्झइ परस्स दोसेणं । कण्णे पुढे कडि चालणव, विउसाण नहु जुत्तं ॥ ८ ॥ अन्नंमि पए संके, दृसिज्झइ दोसदाणओ अन्नं । चरणामओय करहे, गयवरदहणं किमेयंति ॥ ९ ॥ निउणो जथ्थ ससंको, सहसा कारेण तं न दृसिज्झा। जं जं जिणआणाए, तं तं सव्वं पमाणिज्झा ॥ १० ॥ अहवा चिहउ एवं, जे सच्चं तस्स सख्खिया बहवे । ताणताण य सिढिलो, लोए भणिओ सुहसहावो ॥११॥ अह जाणित्त परिन्नं, परस्स जिणपडिमहीलणासन्नं । तबावत्तिकएई, किंपि परूवेमि नेहेण ॥ १२ ॥ अंगाणि उबंगाणि य, महापुब्बनिसीहवज्झिया छेया। नंदिअणुओगदारा, इयाय गंथा पमाणं भे ॥ १३ ॥ एए य जइ पमाण, एसिं कत्ता तुमाण सम्मविऊ । जइ सम्मविऊ तो मे, पमाणमम्हाणवि तउत्तं ॥१४॥ जं नाए सुय जिणहर,-भणणं तं तह विऊण जुत्तयरं । जइ जुत्तयरं तो जिण,-पडिमाइ जिणाण तुल्लत्तं ॥ १५ ॥ भणियाउ अंगुवंगे, छत्ताइणं घराण पडिमाओ। जाओय जिणं भत्ती, पंजलिउड-सेवमाणीओ ॥ १६ ॥ देवच्छंदित्ति तहा, धृवं दाऊण जिणवराणं च । जिणउस्सेहत्ति पयं, किमजुत्तं तं व जुत्तयरं ॥ १७ ॥ जइ जुत्तं ता मन्ने, जिणपडिमा जिणवराण तुल्लत्तं । अयंच सुत्त कारय, चित्ता-भिप्पाय भणिएण ।।१८।। जिणपडिमाणं विरहे, जिणाण सढीण वितनावेण । जाणव असरिसभावं, जस्सुवएसेण तं कहह ॥१९॥ तथाच-सक्कथ्थवाइ भणणं, अन्नेसिं चेइयाण
For Private And Personal Use Only