________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आचार्यश्रीभ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५२ मुं. परमगुरुदेवश्रीपार्श्वचंद्रसूरीश्वरविरचिताश्रीस्थापना पञ्चाशिका॥
जयइ जियाजियवग्गो, समग्गलग्गोवदंसियसमग्गो। संपावियलोगग्गो, वीरजिणो जणियसुहसग्गो ॥ १॥ नाणभरकिरणविदलिय,-अन्नाणतमस्स सुगुरुदिणमणिणो, । उदएणं मह विहसउ, निच्चं मणकमलवणसंडं ॥२॥ जिणवरपडिमाणं जो, बंदण आराहणा विसंवायं। जंपइ संपइ तं. पइ. भत्तिसरूवं परूवेमि ॥३॥ जिणआणा भंगभयं, जइ वि न होहि तं तस्स कि भणिमो । अथ्थि तुम्हाणं तब्भउ, तओवि तुम्हे तं समं सुणह ।। ४ ।। उद्देस समुद्देसा,-णुन्ना पुग्यो सुयंमि अणुओगो । मुत्तुण तिन्नि तुरियं, कस्साएसा कुणह कहह ॥ ५ ॥ " श्रीगुरुना भाष्या विना सूत्रार्थ आपणे छंदे कहेतां हित नथी. यदुक्तं-नियगमइ-विगप्पिय,-चिंतिएण सच्छंदबुद्धिरइएण । कत्तो पारत्तहियं, कीरइ गुरुअणुवएसेण ॥१॥" इय सच्चं जाणंता, वियख्खणा केइ समइगारविया । नंदिसुए पन्नत्तं, महानिसीहं न मन्नति ॥ ६॥ कवि लेहगकुलिहिय,-दोसविरुद्धं पयं पुरो काउं। जिणवयणाणुगयं पि हु, पयं न मन्नंति किं भणिमो ॥७॥ यतः श्रीमहानिशोथे"पुणोवि वीयरागाणं, पडिमाउ चेइयालए । पत्तेयं संथुणे
For Private And Personal Use Only