________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५१ मुं. १६९ उदगं फुसंता । पाणाई भ्याई विहेडयंता, भुज्जो वि मंदा पकरेह पावं ॥१॥” इति श्री साधुवचनात् । परं जइ एहवउ भाव जिनशासनमाहि हउत तउ परदर्शनीनई इम किम कहइ । तथा
श्रीज्ञाताधर्मकथांगि-थावच्चानउ वचन सुदर्शननई "रुहिरकयं वत्थं, रुहिरेण चेव धोविज्जा" इत्यादि छइ, ते इणि उपदेशि किम मिलइ । इणि कारणि सावध भाषा साधु न बोलइ, तथा जइ पुष्पादि पूजा सावध नथी तउ चारित्रियानइ स्यइ काजि निषेधी । पुष्पादि द्रव्यपूजा करतउ साधु अनंतसंसार वधारइ, एहवा सूत्रमाहि अक्षर छइ । तथा जे करियइ नही, ते करावियइ अनुमोदियइ किम । अनई गृहस्थ हियानइ हर्षि जिनपूजा पुष्पादिकई करइ, ते निषेध नही, जिनभक्तिरागत्वात् ॥ जिम पूर्विई दशाणभद्र, उदायन, देव, कोणिक, श्रेणिक, प्रदेशी, प्रमुख अनेक राजा महोत्सव करता निषेध्या नथी । अनई उपदेस पुण जाणीतउ नथी, जिहा उपदेश तिहां निरवद्य इज दीसइ छइ । " किं बहूक्तेन स्तोकादहु ज्ञास्यंति मेधाविनः " इत्यर्थः । तथा हिवडां जे अरिहंत २४ नी प्रतिमा आगलि जन्माभिषेकनी परि बलात्कारि बालका-वच्छा आणी जन्मस्नातकरइ छइ, ते कहा साधुनउ उपदेश। तथा-"लोणं जिणस्स भामिय खिप्पइ जलणे जलंतमि । फुट्टइ लोणं नडयडस्स, ता कणयकलस भरिकुंडिगयंदमइ न्हावउ नेमिकुमार ॥ तथा जयमंगलसूरि बोलइ महावीर भिसेउ ।" "ता कणय कलसिहि, न्हवउ भविया इहज पुज्जउ
For Private And Personal Use Only