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आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं. १६७
परंपराइ पुण नथी दीसत, ते किस विशेष । जिम श्री गीतार्थ कइ तिम प्रमाण करियइ । वि श्री जिनप्रतिमानी वंदना पूजना छ, तिम“ सुयस्स भगवड करेमि काउस्सग्गं । वंदण वतियाए पूयण बत्तियाए । " इम काउं । ते जेतला पुस्तक साधु श्रावक सदैव वांचेइ छई, तेहनई स्नात्र पुष्पादि पूजा नथी थाती, अपूज राषइ छइ, तेहनी आशातनानउ किम छइ, जिम गुरु कहइ, तिम करियइ । हिवं जे कर्त्तव्य जिनशासनमाहि छड़, तिहां जयणा जाणियइ छइ । यदुक्तं षष्टिशतके - " किञ्चपि धम्मकिचं, पूयापमुहं जिणंद आणाए । भूयमणुहरहियं, आणाभंगार दुहदाई || १ || "
के लाएक इम कहई छ, जे पूजा करतां पृथ्वी पाणी अनि वनस्पतीनी विराधना लागइ छड, तिहा असंयम आरंभ दोष न कहियइ, ते धर्म्मइज । इम सांभली मनि संदेह ऊपजइ । शास्त्रमाहि असंयम बोल्यउ । यतः
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दवध्यज्य भावध्यज्य, दवध्यउ बहुगुणोति बुद्धिसिया । अनि मइवयणमिणं, छज्जीवहियं जिणा बिंति ॥ १ ॥ " इति वचनात् ॥ एद्रव्यस्तवकहइ छइ, साधु अनुमोदर, ते सूत्रसि किमि मिलइ | तथा
"
"छज्जीवकायसंजम, दवथ्थए सो विरुझए कसिणो । तो कसिण संजमविऊ, पुप्फाईयं न इच्छति ||१|| द्रव्यस्तवि संपूर्ण छज्जीवकाय संयम विराधाइ । तिणि कारणि साधु पुष्पादिक न ईछइ । इम कहतां ईछिवउँ मनि,
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