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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 44 आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा पुस्तक ५१ मुं. १५९ कर्त्तव्यमणी श्रीवीतराग किris निषेध्यउ नही, तिणि कारणि ए उपदेश हेय न कहियइ || तथा धननउ फल धनलुब्धनउ भाष्य अनइ वली श्रीवीतरागे ठामि ठामि निषेध्यउं । उत्तराध्ययने ४ अध्ययने - " वित्तेण ताणं न लभे पमत्तो " इत्यादि वचनात् ए हेय धर्मन अधिकारि कहिय । तथा श्रीवीतराग वांदिवान फल सम्यग्दृष्टीदेवता, मनुष्य तथा श्रावकना भाषित भणी तथा “ तहारूवस्स णं समणस्स वा माहणस्स वा पज्जुवासणा किं फला?" इत्यादि प्रश्न सवण नाण विनाण पच्चकखाण इत्यादि उत्तर वचन श्रीवीतरागना कला भणी उपादेय उपदेश जाणियइ छइ । तथा पंचमहाव्रतपालिवान उ श्रीवीतरागजिन भाषित भणी विधिवाद उपदेश जाणिय छइ || हिवं जे सम्यग् प्रकारि विधिवादि उपदेश छह, तिहां जाणिज्यो साधुनउ करण कारण अनुमोदन छ । इहां संदेहनथी । जे चरितानुवाद अनई यथास्थितइज छ, तिहां त्रिकरणन निश्चय नथी जाण्यउ : वली गीतार्थ कहइ ते प्रमाण । हिवई श्रीजिनप्रतिमा चरितानुवादि सम्यग्दृष्टी देवता मनुष्यन अधिकारि वांदी पूजी दीसइ छइ, परं ते जिनना राग भणी यथायोग्य उपादेय जाणियइ छइ । एहनी साखि सूत्रमाहि ठामि ठामि छह तथा श्रीरायपसेणीसूत्रे - " तेणं कालेणं तेणं समएणं सुरियामे देवे अहुणोववण्णमित्तिए चेव समाणे पंचविहार पज्जतीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तंजहाआहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए आणपाणप For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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