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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यश्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५१ मुं १५७ पाणेहिं जाव सव्वसत्तेहि पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपत्र - क्खायं भवति नो दुपचक्खायं भवति, एवं खलु से सुपच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वयमाणे सच्च भासं भासइ नो मोसं भासं भासइ, एवं खलु से सच्चarat Hoards ara सव्वसतेहिं तिविहं तिविहेणं संजयविश्यपडियपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संबुडे एगंत पंडिए - यावि भवति, " ( से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वृच्चइ जाव सिय दुपञ्चक्रखायं भवति) इति श्रीजिनवचनात् ॥ जइ जीवाजीव जाणइ तेहनउ पञ्चक्खाण प्रमाण । तथा जाणीनई पालइ नहीं तेहनउ आणपण अप्रमाण यदुक्तं - श्रीउत्तराध्ययने(षष्ठे क्षुल्लक निग्रन्थोयाध्ययनमध्ये) " इहमेगे उ मन्नंति, अपच्चक्रखाय पावगं । आयारियं वियत्ताणं सव्वदुक्खा विचई || १ || भणता अकरताय, बंधमुक्खपइण्णिणो । वाया वीरियमेत्तेणं, समासासंति अप्पयं ||२|| न चित्ता ता भासा, कुओ विज्जाणुसासणं । विसन्ना पावकम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो ॥३॥" इतिवचनात् । तथा श्रीउपदेशमालायां - 66 सुच्चा ते जियलोए, जिणवयणं जे नरा न याणंति । सुच्चा णवि ते सुच्चा, जे नाउणं नवि करंति ॥ १॥ " इतिवचनात् । तथा हिव जिनप्रतिमाधिकारि उपदेश स्वरूप लिखिइ छइ || श्रीअनुयोगद्वार मूल सूत्रि सूत्रनु उपदेश एहवउ For Private And Personal Use Only
SR No.020656
Book TitleSaptapadi Shastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherMandal Sangh
Publication Year1940
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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