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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ७७ कोश तथा कुसूल आदि पर्यायोंमें अनुगत है, और वह मृत्तिकारूप ऊर्ध्वता सामान्यरूप है । और पर्यायरूपसे अनेक घट है, क्योंकि घट रूप रस तथा गन्ध आदि अनेक पर्यायरूप है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नन्वेवमपि सर्वं वस्तु स्यादेकं स्यादनेकमिति कथं संगच्छते ? सर्वस्य वस्तुनः केनापि रूपेणैक्याभावात् । न च सत्त्वादिरूपेण सर्वस्यैक्यं सम्भवतीति वाच्यम्; सत्त्वस्यापि सकलवस्तुव्यापिन एकस्य सिद्धान्तविरुद्धत्वात् । सदृशपरिणामस्यैकैकव्यक्तिगतस्य तत्तद्व्यक्त्यात्मकस्य प्रतिव्यक्तिभिन्नस्यैव सिद्धान्तसिद्धत्वात् । तदुक्तम्- "उपयोगो लक्षणम्" इति सूत्रे तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके प्रश्नः - द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिकनयका आश्रय करके एक तथा अनेकत्व आदि सप्तभङ्गी स्वीकार करने पर भी "सर्व वस्तु स्यादेकं सर्वे वस्तु स्यादनेकम्” सब वस्तु कथंचित् एक हैं और कथंचित् अनेक हैं यह कैसे संगत हो सकता है क्योंकि किसी प्रकार सब वस्तुकी एकता नहीं हो सकती । सत्त्व आदिरूपसे भी सब वस्तुकी एकता नहीं कह सकते, क्योंकि संपूर्ण वस्तु व्यापी एक सत्त्वका अङ्गीकार जैन सिद्धान्तके विरूद्ध है । जैन सिद्धान्त अनुसार सदृश परिणामरूप एक एक व्यक्तिगत तथा उस २ व्यक्तिरूप सत्त्व, प्रतिव्यक्ति भिन्न ही सिद्ध है । यह विषय अन्यत्र कहा भी है । " उपयोगो लक्षणम्" ज्ञान तथा दर्शनरूप उपयोग ही जीवका लक्षण है इस सूत्र के तत्त्वार्थ श्लोक वार्त्तिकमें; -- 1 1 “न हि वयं सदृशपरिणाममनेकव्यक्तिव्यापिनं युगपदुपगच्छामोऽन्यत्रोपचारात्” इति । " अन्य व्यक्तिमें उपचारसे एक कालमें ही सदृश परिणामरूप अनेक व्यक्ति व्यापी एक सत्त्व हमें नहीं मानते ऐसा कहा है । सूत्रितं च माणिक्यनन्दिस्वामिभिः तथा माणिक्यनन्दिस्वामीने ऐसा सूत्रका भी उपन्यास किया है । “सदृशपरिणामस्तिर्यक्खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत्” इति । " खण्ड मुण्ड आदिमें गोत्वके सदृश परिणामरूप प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न २ जो सदृश परिणाम है उसीको तिर्यक् सामान्य कहते है ।" विवृतं चैतन्मार्ताण्डे इसका विवरण प्रमेय कमलमार्त्तण्ड में कहा भी है “सदृशपरिणामात्मकमनेकं तिर्यक्सामान्यम्” इति । “सदृश परिणामरूप प्रत्येक में भिन्न २ अनेक सत्त्व तिर्यक् सामान्य है" तस्मात्सत्त्वस्यापि तिर्यक्सामान्यरूपस्य प्रतिव्यक्तिभिन्नत्वात् कथं सर्वस्य वस्तुनस्सत्त्वेन रूपेणैक्यम् ? इति चेत्; - अत्र ब्रूमः । सत्तासामान्यमेकानेकात्मकमेव सिद्धान्ते स्वीकृतम् । सत्त्वं हि व्यक्त्यात्मनाऽनेकमपि स्वात्मनैकं भवति । पूर्वोदाहृतपूर्वाचार्यवचनानां च सर्व १ जैनमतावलम्बी. For Private And Personal Use Only
SR No.020654
Book TitleSaptabhangi Tarangini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimaldas, Pandit Thakurprasad Sharma
PublisherNirnaysagar Yantralaya Mumbai
Publication Year
Total Pages98
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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