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आत्मीय भाव
ज्ञान-विज्ञान का रहस्य जानना प्रत्येक समीक्षक, पाठक, अनुसंधानकर्त्ता या अर्थ विश्लेषज्ञ कर्त्तव्य है। हम शब्द के अर्थ को ठीक तरह से कैसे जानें उनकी वास्तविकता का ज्ञान करें, उन्हें कैसे समझें और कैसे पुरा साहित्य के शब्द का अर्थ समझ सकें? ऐसी जिज्ञासा होना स्वाभाविक है। अर्थ के ज्ञाता होते हैं, वे अर्थबोध देते हैं, उन्हें समझाते हैं, उनकी गुत्थियों का निराकरण भी करते हैं। वे ज्ञान केन्द्र की ओर प्रेरित भी करते हैं।
मैंने संपादन के क्षेत्र में प्रवेश करते ही पाया कि संस्कृत का एक मात्र ज्ञान संस्कृत के लिए हो सकता है, पर संस्कृतज्ञों द्वारा जो भी नाटक लिखे हैं वे संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत के विविध विचारों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं । प्राकृत की बहुलता हो हुए भी नाटकों के प्राकृत अंशों को मूल रूप में न रखकर उसे संस्कृत रूपान्तरण के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। एक समय संस्कृत के साथ प्राकृत के अनुवाद को भी महत्त्व दिया जाता था, पर संस्कृत प्रभाव से प्राकृत का वह अंश प्राकृत के स्थान पर संस्कृत रूपान्तरण को प्राप्त हो गया, यही नहीं, अपितु संस्कृत के साथ जो प्राकृत का शिक्षण कार्य होता था, वह पूर्णतः समाप्त हो गया। इसी कारण मैंने प्राकृत भाषा के स्थायित्व के लिए प्राकृत में काव्य, महाकाव्य, खंडकाव्य, कथा, निबंध आदि लिखने का प्रयास किया, इससे प्राकृत के प्रति लोगों में नई जागृति आई । मैंने इसी संकल्प के साथ पहले लघु प्राकृत शब्दकोश लिखा, फिर प्राकृत हिन्दी शब्दकोश को दो भाग में प्रस्तुत किया, जिसे आदर-सम्मान प्राप्त हुआ।
गति, गति है, गति भी प्रगति की ओर बढ़ती चली गई। प्राकृत को सम्मान दिलाने का प्रयास समाप्त नहीं होता, अपितु प्रयत्न में साधु-साध्वियों को जोड़ने का प्रयास किया।
संबल मिला आचार्य श्वेत पिच्छाचार्य, आ० विद्यानंद का । जिनके कारण काव्यों में भी अनेक महाकाव्यों (सोलह महाकाव्यों) का सृजन वो भी मूल वसंततिलका के कथानक में भी सौ से अधिक छंदों में समाहित काव्यों के सृजन ने शब्दों से खेलने एवं शब्दों से जुड़ने का अवसर प्रदान किया। आशीष मिला कई संतों का, महंतों का। आचार्य विद्यासागर, मुनि पुंगव सुधा सागर, आ० सन्मतिसागर, बालाचार्य योगीन्द्रसागर, गणाचार्य विरागसागर आदि का नित नूतन प्रयोग बालकों के लिए, प्रबुद्ध पाठकों के लिए, विद्यार्थियों के लिए और साधक साधु वर्ग के लिए। आ० सुनीलसागर ने काव्य में गति की, उपाध् याय श्रुतसागर ने प्राकृत में ही उपदेश देने का संकल्प किया। उपाध्याय प्रज्ञसागर (पूर्व विकर्षसागर) ने तो दिल्ली के प्रबुद्ध वर्ग की ओर प्राकृत को ले जाकर महावीर वचन की सार्थकता पर बल दिया।
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इसी अनुभूति में संस्कृत हिन्दी शब्दकोश भी तीन भाग में न्यू भारतीय बुक कारपोरेशन, दिल्ली के द्वारा प्रकाशित कर संस्कृत की गरिमा को बढ़ाया। अब है अभिव्यक्ति का महासमुद्र, जिसमें संस्कृत है मूल में। उसका रूपान्तरण है प्राकृत में । हिन्दी के अर्थों में अर्थ गाम्भीर्य तो है ही, अनेकार्थ शब्द भी हैं। यह
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