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डर से रक्षा,---मया तस्याभयं दत्तम्--पंच० १,।। °कंप 2. (विशेषण तथा स्वतन्त्र संज्ञा शब्दों से पूर्व सम-कृत (वि.) 1. जो भयानक न हो, मदु, 2. लगने वाला उपसर्ग)-अर्थ-(क) तीव्रता और सुरक्षा देने वाला,-डिडिमः 1. सुरक्षा या विश्वसनी- प्राधान्य, धर्म:-प्रधान कर्तव्य, ताम्र---अत्यंत लाल यता का ढिंढोरा, 2. युद्धभेरी,---,-दायिन,-प्रद नव-बिलकुल नया (ख) 'की ओर' की दिशा में', (वि) सुरक्षा का वचन देने वाला,-दक्षिणा,--दानम्, अव्ययीभाव समास बनाना चैद्यम, मुखम, द्रति --प्रदानम् भय से मुक्ति का वचन या सुरक्षा की गारंटी | आदि 3. (कर्म० के साथ संबं० अव्य के रूप में) ---सर्वप्रदानेष्वभयप्रदान (प्रधानम्)--पंच० ११२९०, (क) 'की ओर' की दिशा में' के विरुद्ध' (कर्म के
--पत्रम् सुरक्षा का विश्वास दिलाने वाला लिखित साथ या इसी अर्थ में समास के साथ) अम्यग्नि या पत्र, तु० आधुनिक 'सुरक्षा आचरण'-याचना रक्षा के अग्निमभि शलभाः पतंति, वृक्षमभिद्योतते विद्युतलिए प्रार्थना,-वचनम्-वाच (स्त्री) सुरक्षा का सिद्धा० (ख) 'निकट' 'पहले' 'सामने' 'उपस्थिति में वचन या भय से मुक्त कर देने की प्रतिज्ञा ।
(ग) पर ऊपर, संकेत करते हुए, के विषय में साधु अभयंकर --कृत (वि.) [न० त०] 1. जो भयानक न हो देवदत्तो मातरमभि-- सिद्धा० (घ) पृथक् पृथक, एक2. सुरक्षा करने वाला
एक करके (विभाग द्वारा)-वृक्ष वृक्षमभिषिंचति अभवः [न० त०] 1. अविद्यमानता,—मत्त एव भवाभवौ
---सिद्धा। महा०, 2. छुटकारा मोक्ष,—प्राप्तुमभवमभिवाञ्छति
अभि (भी) क (वि.) [ अभि+कन् ] कामी, लंपट, वा-कि० १२१३०, १८।२७. 3. समाप्ति या प्रलय |
विलासी,-सोऽधिकारमभिक: कुलोचितं काश्चन स्वय--भवाय सर्वभूतानामभवाय च रक्षसाम्-रामा० । मवर्तयत्समाः– रघु १९१४, अपि सिंचेः कृशानो त्वं दपं अभव्य (वि.) [न० त०] 1. जो न होना हो 2. अनु- मय्यपि योऽभिकः-भट्रि०८।९२।
पयुक्त, अशुभ 3. दुर्भाग्यपूर्ण, अभागा,... उपनतमवघी-| अभिकांक्षा [ अभि+कांक्ष + अङ-+टाप् ] कामना, इच्छा, रयन्त्यभव्याः -कि० १०.५१ ।
लालसा । अभाग (वि.) न० ब०] 1. जिसका संपत्ति में कोई | अभिकांक्षिन् (वि.) [ अभि+कांक्ष+णिनि ] लालसा हिस्सा न हो, 2. अविभक्त ।
रखने वाला, कामना करने वाला। अभावः [न० त०] 1. न होना, अनस्तित्व,-गतो भावोऽ- | अभिकाम (वि०) [अभिवृद्धः कामो यस्य-अभि+
भावम्-मृच्छ०१ (अन्तर्धान हो गया) 2. अनुपस्थिति, कम् + अच् ब० स० ] स्नेही, प्रेमी, इच्छुक, कामनाकमी, असफलता,-सर्वेषामप्यभावे तू ब्राह्मणा रिकथ- युक्त, कामुक (कर्म में या समास में)—याचे त्वामभिभागिनः-मनु० ९।१८८, अधिकतर समास में, कामाहम्---महा०,--मः (प्रा० स०) 1. स्नेह, प्रेम -सर्वाभावे हरेन्नपः-१८९, सब कुछ विफल हो जाने | 2. कामना, इच्छा। पर 3. सर्वनाश, मत्य, विनाश, सत्ताशून्यता, नाभाव | अभिक्रमः [अभि-+क्रम-घा, अवृद्धि: ] 1. आरम्भ, उपलब्धेः- शारी० 4. (दर्शन में) लोप, असत्ता, प्रयत्न, व्यवसाय, नेहाभिकमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न अविद्यमानता या निषेध, कणाद के मतानुसार सातवा विद्यते-भग० २।४, 2. निश्चित आक्रमण या धावा, पदार्थ या वर्ग, (इसके दो भेद है -संसर्गाभाव और अभियान, हमला 3. आरोहण, सवार होना। अन्योन्याभाव, पहले के फिर तीन उपभद है प्रागभाव । अभिक्रमणम-क्रांतिः (स्त्री) [ अभि+क्रम- ल्युट, क्तिन प्रध्वंसाभाव, और अत्यंताभाव) ।
वा उपागमन, आक्रमण करना=देऊ०अभिक्रम । अभावना [नत०] 1. सत्यविवेचन या निर्णय का अभाव 2
अभिक्रोशः | अभि-क्रुश् + घन ] 1. पुकारना, चिल्लाना धार्मिक ध्यान का अभाव ।
2. अपशब्द कहना, निदा करना । अभाषित (वि०) | न० त०] न कहा हुआ। सम० | अभिकोशकः | अभि-+ क्रश---प्रवल | पूकारने वाला, गाली --स्कः बह शब्द जो कभी पुं० या स्त्रो० में प्रयुक्त
देने वाला, कलंक लगाने वाला। न होता हो अर्थात् नित्यस्त्रीलिंग।
अभिख्या[अभि +ख्या+अ+टाप् ]1, चमक-दमक, शोभा अभि (अव्य०) [न +भा+कि ] (धातु और शब्दों से कालि, काप्यभिख्या तयोरासीद् ब्रजतोः शुद्धबेषयोः
पूर्व लगाया जाने वाला उपसर्ग) अर्थ-(क) 'की रघु० १।४६, सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिओर', 'की दिशा में', अभिगम की और जाना, ख्याम्- - मेघ०, ८० कु० ११४३, ७।१८, 2. कहना, अभिया, गमनम्, प्यानम् आदि (ख) 'के लिए' 'के घोषणा करना, 3. पुकारना, संबोधित करना 4. नाम, विरुद्ध' 'लप्, 'पत् आदि (ग) 'पर' 'ऊपर' °सिंच् अभिधान 5. शब्द, पर्याय 6. प्रसिद्धि, यश, कुख्याति, पर छिड़कना आदि (घ) 'ऊपर से' 'ऊपर' 'परे' भू माहात्म्य । हावी हो जाना, तन (ङ) 'अधिकता से' 'बहुत' । अभिख्यानम् [ अभि+ख्या+ल्युट् ] ख्याति, यश ।
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