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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६४ ) | अपृथक् ( अव्य० ) [न० त०] अलग से नहीं, साथ-साथ, समष्टि रूप से । अपुंस्का ( स्त्री० ) [ नास्ति पुमान् यस्याः न० ब०] बिना पति की स्त्री-नापुंस्कासीति मे मतिः भट्टि० ५/७० 1 अपुत्रः [न० त०] जो पुत्र न हो, (वि० ) - पुत्रक (वि०) (स्त्री० - त्रिका) जिसके कोई पुत्र या उत्तराधिकारी न हो । अपुत्रिका ( स्त्री० ) [ न० ब० कप्, टाप् इत्वं च ] पुत्रहीन पिता की ऐसी कन्या जिसके कोई पुत्र न हो; जो पुत्राभाव की स्थिति में पिता द्वारा पुत्रोत्पत्ति के लिए नियत न की गई हो, तु० 'अकृता' । अपुनर् (अव्य० ) [ न० त०] फिर नहीं, एक ही बार, सदा के लिए । सम० अन्वय ( वि० ) न लौटने वाला, मृत, आदानम् फिर न लेना, वापिस न लेना -- आवृत्तिः (स्त्री० ) फिर न लौटना, परम गति, प्राप्य ( वि० ) जो फिर प्राप्त न हो सके, भवः 1. जो फिर उत्पन्न न हो ( रोगादिक भी ), 2. मोक्ष या परमगति । अपुष्ट ( वि० ) [ न० त०] 1. जिसका पोषण ठीक तरह से न हुआ हो, दुबला पतला, जो स्थूल न हो 2. (स्वर) जो ऊँचा या भीषण न हो, मृदु, मन्द 3. (सा०शा० ) जो ( अर्थ का ) पोषक या सहायक न हो असंबद्ध अर्थदोषों में से एक उदा० सा० द० ५७५--- विलोक्य वितते व्योम्नि विधुं मंच रुषं प्रिये - यहाँ आकाश का विशेषण 'वितत' शब्द कोष की शान्ति में कोई सहायता नहीं करता इसलिए असंबद्ध है । अपूपः [न पूयते विशीर्यते - पू+प, न० त० तारा०] मालपुआ, शर्करादिक डाल कर बनाया गया रोटी से मोटा पदार्थ, इसे 'पूड़ा' कहते हैं । अपूपीय, अप्रूप्य ( वि० ) [ अपूपाय हितम् छ, यत् च ] अपूप संबन्धी, प्यम् - आटा, भोजन । अपूरणी (स्त्री० ) [ न० त०] सेमल का पेड़ । अपूर्ण (वि० ) [ न० त०] जो पूरा या भरा न हो, अधूरा असम्पन्न - अपूर्णमेकेन शतं ऋतूनाम् - रघु० ३।८८; अपूर्ण एवं पंचरात्रे दोहदस्य – मालवि० ३ । अपूर्व (वि० ) [ न० ब०] 1. जैसा पहले न हुआ हो, जो पहले विद्यमान न था, बिल्कुल नया, अपूर्वमिदं नाटकम् - श० ११२, 2. अनोखा, असाधारण, अद्भुत ; -- अपूर्वो दृश्यते वह्निः कामिन्याः स्तनमंडले, दूरतो दहतीवांगं हृदि लग्नस्तु शीतलः - श्रृंगार० १७, निराला, अनुद्यम, अभूतपूर्व - अपूर्व कर्मचाण्डालमपि मुग्धे विमुंचमाम् -- उत्तर० १।४६, अप्रतिम नृशंसता करने वाली 3. अज्ञात 4. अप्रथम, वंम् 1. किसी कार्य का दूरवर्ती फल जैसा कि सत्कार्यों के फलस्वरूप स्वर्गप्राप्ति 2. इष्ट और अनिष्ट जो भावी सुख दुःख के अन्तिम कारण है; —र्वः परब्रह्म । सम० पति: ( स्त्री ० ) जिसे अभी तक पति प्राप्त नहीं हुआ, कुमारी कन्या, विषिः नया आधिकारिक निदेश या आज्ञा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपेक्षा अपेक्षणम् [ अप् + ईश् + ल्युट् अप + ईक्ष् + अ ] 1. प्रत्याशा, आशा, चाह, 2. आवश्यकता, जरूरत, कारण प्रायः समास में स्फुलिंगावस्थया वरेिघापेक्ष इव स्थितः - श० ७ १५, जलने की प्रतीक्षा में 3. विचार उल्लेख, लिहाज कर्म के साथ अधि० में, प्रायः समास में; करण० या कभी-कभी अधि० में, ( अपेक्षया, अपेक्षायां ) समास में बहुधा प्रयुक्त का अर्थ - का उल्लेख करते हुए' 'लिहाज करके ' 'के निमित्त' नियमापेक्षया - रघु०/४९, प्रथमसुकृतापेक्षया - मेघ० १७; अत्र व्यंग्यं गुणीभूतं तदपेक्षया वाच्यस्यैव चमत्कारिकत्वात् काव्य० १, इसकी तुलना में 4. मेलजोल, संबंध 5 देखभाल, ध्यान, सावधानी -- देशापेक्षास्तथा यूयं याता दायांगुलीयकम् - भट्टि० ७१४९, 6. सम्मान, समादर 7. ( व्या० में) = आकांक्षा । अपेक्षणीय, ( वि० ) [ अप + ईक्ष + अनीयर् तव्यत्, अपेक्षितव्य, ण्यद् वा ] अपेक्षा करने के योग्य, जिसकी अपेक्ष्य आवश्यकता या आशा हो, जिसकी प्रत्याशा या विचार किया जा सके; वाञ्छनीय | अपेक्षित (भू० क० कृ० ) [ अप + ईश् + क्त ] जिसकी तलाश की गई हो, जिसकी आशा की गई हो, जिसकी आवश्यकता हो, जिसका विचार किया गया हो, ---तम् चाह, इच्छा, लिहाज, उल्लेख । अपेत (भू० क० कृ० ) [ अप + इ + क्त ] 1. गया हुआ, ओझल हुआ, अपेतयुद्धाभिनिवेशसौम्या शि० ३।१, 2. वियुक्त या विचलित, विरुद्ध ( अपा० के साथ ) अर्थादनपेतम् अर्थ्यम् -- सिद्धा०, 3 मुक्त, वंचित ( अपा० के साथ या समास में ) सुखादपेतः - सिद्धा०, उदवदनवद्या तामवद्यादपेतः - रघु० ७११०, निर्दोष । अपेहि (लोट् म० पु० ए० व० ) ( मयूरव्यंसकादि श्रेणी से संबद्ध समासों के प्रथम पद के रूप में प्रयुक्त ) करा, द्वितीया, स्वागता आदि जहाँ इस शब्द का अर्थ होता है " के बिना" "निकाल कर " "सम्मिलित न करके" उदा० वाणिजा - इस प्रकार का समारोह जहाँ व्यापारियों को संमिलित न किया जाय, — इसी प्रकार द्वितीया आदि । अपोगंड: [ अपसि ( वैधकर्मणि) गंड: त्याज्यः तारा० 1. अधिक अंगों वाला, या कम अंगों वाला 2. जो सोलह बरस से कम आयु का न हो, मनु० २।१४८ 3. शिशु 4. अतिभीरु 5. झुर्रीदार । (वि० ) [ अप + वह + क्त ] अपोढ दूर हटाया गया ( अपा० के साथ ) ; कल्पनापोढः = कल्पनायाः अपोढः ; ० अपपूर्वक 'वह' । For Private and Personal Use Only
SR No.020643
Book TitleSanskrit Hindi Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaman Shivram Apte
PublisherNag Prakashak
Publication Year1995
Total Pages1372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size37 MB
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