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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 648 ) 31, वृक्षं प्रतिविद्योतते विद्यत-सिद्धा०, (ख) के विरुद्ध प्रतिकूल, की विपरीत दिशा में, सम्मुख --तदा यायाद्रिपुं प्रति-मनु०७१७१, प्रदुद्रुवुस्तं प्रति राक्षसेन्द्रम् --रामा०, ययावजः प्रत्यरिसैन्यमेव -रघु० 755, (ग) की तुलना में, सममूल्य पर, के अनुपात में, जोड़ का - त्वं सहस्राणि प्रति-ऋक 0 21138, (घ) निकट, के आसपास, पास की ओर, में, पर--समासेदुस्ततो गंगां शृंगवेरपुरं प्रति-रामा०, गंगा प्रति (इ) के समय, लगभग, दौरान में-आदित्यस्योदयं प्रति-महा०, फाल्गुनं वाथ चैत्र वा मासौ प्रति-मनु० 7.182, (च) की ओर से, के पक्ष में, के भाग्य में-यदत्र मां प्रतिस्यात् -सिद्धा०, हरं प्रति हलाहलं (अभवत्)—वोप०, (छ) प्रत्येक में, हरेक में, अलग-अलग (विभागसूचक), वर्ष प्रति, प्रतिवर्षम, यज्ञं प्रति याज्ञ. 11110, वृक्ष वृक्षं प्रति सिंचति -~-सिद्धा, (ज) के विषय में, के संबंध में, के बारे में, विषयक, बाबत, विषय में न हि मे संशीतिरस्या दिव्यतां प्रति---का० 132, चन्द्रोपरागं प्रति तु केनापि विप्रलब्धासि-मुद्रा० 1, धर्मप्रतिश० 5, मंदौत्सुक्यो ऽस्मि नगरगमन प्रति- श०१, कु०६।२७, 7 / 83, याज्ञ० 9 / 218, रघु० 6 / 12, 10 / 20, 12 / 51, (झ) के अनुसार, के समनुरूप.-मां प्रति (मेरी सम्मति में), (अ) के सामने, की उपस्थिति में, (ट) क्योंकि, के कारण 4. स्वतंत्र संबंधबोधक अव्यय के रूप में (अपा के साथ) इसका अर्थ है, (क) प्रतिनिधि, के स्थान में, के बजाय--प्रद्युम्नः कृष्णात्प्रति-सिद्धा. संग्रामे यो नारायणतः प्रति-भट्टि० 8 / 89, अथवा (ख) की एवज में, के बदले-तिलेभ्यः प्रति यच्छति माषान्-सिद्धा०, भक्तेः प्रत्यमतं शम्भो:-बोप० 5. अव्ययीभाव समास के प्रथम पद के रूप में प्रायः इसका अर्थ है, (क) प्रत्येक में या पर, यथा प्रतिसंवत्सरम् ~-(प्रतिवर्ष), प्रतिक्षणं, प्रत्यहं आदि, (ख) की ओर, की दिशा में प्रत्यग्नि शलभा डयन्ते 6. 'प्रति' कभी कभी 'अल्पतार्थ' प्रकट करने के लिए अव्ययीभाव समास के अन्तिम पद के रूप में प्रयुक्त होता है सूपप्रति, शाक प्रति (विशे० निम्नांकित समासों में वह सब शब्द जिनका दूसरा पद क्रिया के साथ अव्यवहित रूप से नहीं जुड़ा हुआ है, सम्मिलित कर दिए गए हैं, अन्य शब्द अपने 2 स्थानों पर मिलेंगे। सम०-अक्षरम (अव्य०) प्रत्येक अक्षर में प्रत्यक्षर श्लेषमयप्रबंध -वास, अग्नि (अव्य०) अग्नि की ओर, अंगम 1. (शरीर का) गौण या छोटा अंग ---जैसे कि नाक 2. प्रभाग, अध्याय, अनुभाग 3. प्रत्येक अंग 4. अस्त्र (अव्य-गम) 1. शरीर के प्रत्येक अंग पर-यथा-प्रत्यंगमालिंगितः-गीत०१2.। प्रत्येक उपप्रभाग या उपांग के लिए, अनन्तर (वि.) 1. सट कर पड़ोस में होने वाला 2. उत्तराधिकारी के रूप में) निकटतम विद्यमान 3. तुरन्त बाद का, बिल्कुल जुड़ा हुआ-जीवेत् क्षत्रियधर्मेण स ह्यस्य (ब्रह्मणस्य) प्रत्यनंतरः मनु० 10.82, 8 // 185,- अनिलम् (अव्य०) हवा की ओर, या हवा के विरुद्ध-अनीक (बि) 1. विरोधी, विरुद्ध, विद्वेषी 2 मुकाबला करने वाला, विरोध करने वाला --(क:) शत्रु (-कम्) 1. विरोध, शत्रुता, विपरीत ढंग या स्थिति-न शक्ता: प्रत्यनीकेषु स्थातुं मम सुरासुराः-राम 2. शत्रु की सेना--यस्य शूरा महेब्वासाः प्रत्यनीकगता रणे-महा०, येऽवस्थिताः प्रत्य नीकेषु योधा:-भग० 11 // 32, (यहां 'प्रति' का अर्थ 'शत्रता' भी है) 3. (अलं० शास्त्र) अलंकार - इसमें एक व्यक्ति उस शत्रु को जो स्वयं घायल नहीं हो सकता, चोट पहुंचाने का प्रयत्न करता है-प्रतिपक्षमशक्तेन प्रतिकर्तुं तिरस्क्रिया, या तदीयस्य तत्स्तुत्यै प्रत्यनीकं तदुच्यते-काव्य० १०,-अनुमानम् प्रतिकल उपसंहार-अंत (वि.) संसक्त, सटा हुआ, साथ लगा हुआ, सीमावर्ती (तः) 1. सीमा, हद, रघु० 4 / 26, 2. सीमावर्ती देश, विशेषत: म्लेच्छों द्वारा अधिकृत प्रदेश, देशः सीमावर्ती देश, पर्वतः साथ लगी हुई पहाड़ी--पादाः प्रत्यंग पर्वता:-अमर०, -अपकारः प्रतिशोध, बदले में क्षति पहुंचाना-शाम्येप्रत्यपकारेण नोपकारेण दुर्जन:-कु० २१४०,--अब्दम् (अव्य.) प्रतिवर्ष,-अभियोगः बदले में दोषारोपण, प्रत्यारोप,-अमित्रम (अव्य०) शत्रु की ओर, अर्कः झूठमूठ का सूरज, अवयवम (अव्य०) 1. प्रत्येक अंग में 2. प्रत्येक विशेषता के साथ, विवरण सहित, –अवर (वि०) 1. निम्न पद का, कम सम्मानित 2. अधम, पतित, अत्यंत निगण्य,--अश्मन् (पुं०) गेरु, -अहम (अव्य०) प्रतिदिन, हररोज, रोज-गिरिशमुपचचार प्रत्यहम्-कु. ११६०,—आकारः, कोष, भ्यान, आघातः 1. प्रत्याक्रमण 2. प्रतिक्रिया,-आचारः उपयुक्त आचरण या व्यवहार, आत्मम अकेला, अलग अलग,---आदित्यः झूठमूठ का सूरज,-आरंभ: 1. फिर शुरु करना, दूसरी बार आरंभ करना 2. प्रतिषेध,-आशा 1. उम्मीद, पूर्वधारणा–मा० 9 / 8 2. विश्वास, भरोसा, उत्तरम जवाब, उत्तर का उत्तर, उलक: 1. कौवा 2. उल्ल से मिलता-जुलता पक्षी,-ऋच (अव्य०) प्रत्येक ऋचा में, एक (वि०) प्रत्येक, हरेक. हरकोई (अव्य. कम्) 1. एक एक करके, एक बार में एक, अलग, अलग, अकेला, हर एक में, हर एक को (बहुधा विशेषणात्मक बल के साथ)--विवेश दण्डकारण्यं प्रत्येकं च सतां मनः-रघु० For Private and Personal Use Only
SR No.020643
Book TitleSanskrit Hindi Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaman Shivram Apte
PublisherNag Prakashak
Publication Year1995
Total Pages1372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size37 MB
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