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( ४८५ )
पक्ष, पखवाड़ा, सहस्र, साहस्र ( वि० ) २००० से युक्त (खम् ) दो हजार, सीत्य, हल्प (वि० ) दोनों ओर से हल चला हुआ अर्थात् पहले लम्बाई की ओर से और फिर चौड़ाई की ओर से, सुवर्ण (वि०) दो सोने की मोहरों से खरीदा हुआ या दो स्वर्ण मुद्राओं के मूल्य का, - हन् (पुं० ) हाथी, - हायन् -वर्ष (वि०) दो वर्ष की आयु का -हीन (वि०) नपुंसक लिंग, हृदया गर्भवती स्त्री - होत (पुं० ) अग्नि का विशेषण । कि ( वि० ) ( द्वाभ्यां कायति - द्वि / कै+क] 1. दोहरा, जोड़ी बनाने वाला, दो से युक्त 2. दूसरा 3. दोवारा होने वाला 4. दो अधिक बढ़ा हुआ, दो प्रतिशत - द्विकं शतं वृद्धिः - मनु० ८।१४१-२ । द्वितय (वि० ) ( स्त्री० थी ) ( द्वौ अवयवो यस्य – हि + तयप्] दो से युक्त, दो में विभक्त, दुगुना, दोहरा ( कई बार व० ० में प्रयुक्त) द्रुमसानुमता किमन्तरं यदि वायो द्वितयेऽपि ते चलाः रघु० ८९०, -यम् जोड़ी, युगल -- र६० ८/६,
द्वितीय ( वि० ) [ द्वयोः पूरणम् द्वितीय] दूसरा त्वं जीवितं त्वमसि मे हृदयं द्वितीयम् उत्तर० ३।२६, मेघ० ८३, रघु० ३।४९, य: 1. परिवार में दूसरा, पुत्र 2. साधी, साझीदार, मित्र ( प्राय: समास के अन्त में ) प्रयतपरिग्रहद्वितीयः -- रघु० ११९५, इसी प्रकार छाया, दुःख, या चान्द्रमास के पक्ष की दोयज, पत्नी, साथी, साझीदार | सम० आश्रमः ब्राह्मण या गृहस्थ के जीवन की दूसरी अवस्था अर्थात गार्हस्थ्य |
द्वितीयक (fro) [ द्वितीय + कन् ] दूसरा । द्वितीयाकृत (वि०) (द्वितीय + डाच् +कृ+क्त] (खेत आदि) जिसमें दो बार हल चलाया जा चुका हो । द्वितीयन् ( वि० ) ( स्त्री० - नी ) [ द्वितीय + इनि] दूसरे स्थान पर अधिकार किये
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द्विध (वि० ) [ द्विधा + क] दो भागों में विभक्त, दो टुकड़ों में कटा हुआ ।
द्विधा (अव्य० ) [द्रि + धात्र]। दो भागों में - द्विधाभिन्ना चिखन्डिमि: रघु० ११३९, मनु० १/१२,३२, द्विधेव हृदयं तस्य दुःखितस्याभवनदा महा० 2. दो प्रकार से । सम०करणम् दो भागों में विभाजन, टुकड़े-टुकड़े करना, गति: 1. उभयचर जन्तु, जलस्थल चर 2. केंकड़ा 3 मगरमच्छ ।
द्विशस् (oro) [fa + शस्] दो दो करके दो के हिसाब से, जोड़े में ।
द्विष् ( अदा० उभ० द्वेष्टि, द्विष्टे, द्विप्ट) घृणा करना, पसंद न करना, विरोधी होना-न द्वेक्षि यज्जनमतस्त्वमजातशत्रुः - - वेणी० ३।१५, भग० २।५७, १८ १०,
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भट्टि० १७/६१, १८/९, रम्यं द्वेष्टि - श० ६।५, (प्रवि, सम् आदि उपसर्ग लगने पर इस धातु के अर्थों में कोई परिवर्तन नहीं होता) ।
द्विष् ( वि० ) | द्विष् + क्विप् । विरोधी, घृणा करने वाला, शत्रुवत् (पुं०) शत्रु - रन्ध्रान्वेषणदक्षाणां द्विषामामिषतां ययौ रघु० १२ ११, ३।४५, पंच० १।७० । द्विष [ द्विष् + क] शत्रु ( द्विवन्तप) वि० शत्रु को संतप्त करने वाला, परिशोध लेने वाला ) ।
द्विषत् (पुं० ) [ द्विष् + शतृ] शत्रु ( कर्म० या संबं० के साथ) - ततः परं दुष्प्रसह द्विषद्भिः - रघु० ६/३१, शि० २।१, भट्टि० ५। ९७ ।
(वि० ) | द्विष् +क्त]। विरोधी 2. घृणित, अप्रिय - ष्टम् तांबा ।
द्विष्ट
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द्विस् ( अव्य० ) [ द्वि+सुच्] दो बार द्विरिव प्रतिशब्देन व्याजहार हिमालय: कु० ६/६४, मनु० २/६० । सम० - आगमनम् ( द्विरागमनम् ) गौना, मुकलावा, दुल्हन का अपने पति के घर दूसरी बार आना, -- आपः (द्विराप ) हाथी, उक्त ( द्विरुक्त) (वि० ) 1. आवृत्ति, पुनरुक्ति 2. अतिरेक, अनुपयोग, कढा ( द्विरूढा ) पुनर्विवाहित स्त्री, भावः, - बच्चनम् द्विरावृत्ति |
द्वीपः, -पम् [ द्विगंता द्वयोदिशोर्वा गता आपो यत्र द्वि-अप्, अप ईप] 1. टापू 2. शरणस्थान, आश्रयगृह उत्पादन स्थान 3. भूलोक का एक भाग (भिन्न २ मतानुसार इन भागों की संख्या भी भिन्न २ है, चार, सात, नौ या तेरह, कमल की पंखड़ियों की भांति सब के सब मेरु के चारों ओर स्थित हैं, इनमें से प्रत्यक को समुद्र एक दूसरे से वियुक्त करता है।
० १।५ में अठारह द्वीपों का वर्णन है, परन्तु सात की संख्या सामान्य प्रतीत होती है- तु० रषु० १६५, और श० ७ ३३, केन्द्रीय भाग जम्बूद्वीप का है जिसमें भारतवर्ष विद्यमान है ) । - कर्पूर: चीन से प्राप्त कपूर ।
द्वेषः
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द्वीपवत् (वि० ) [ द्वीप + मतुप् ] टापुओं - ( पु० ) समुद्र, ती पृथ्वी । द्वीपिन् (पु० ) ( द्वीप + इनि] 1. शेर चर्मणि द्वीपिनं हन्ति - सिद्धा० 2. चीता, व्याघ्र । सम० नखः,खम् 1. शेर की पूँछ 2. एक प्रकार का सुगन्ध द्रव्य । या ( अव्य० ) [ द्वि | धा], दो भागों में, दो तरह से, दो बार ।
[द्विप् + घञ् ] 1. घृणा, अरुचि, बीभत्सा, अनिच्छा, जुगुप्सा १० ५।१८, भग० ३।३४, ७/२७, इसी प्रकार अन्नद्वेष, भक्तद्वेषः 2. शत्रुता, विरोध, ईर्ष्या -- मनु० ८।२२५ ।
द्वेषण (वि० ) [ द्विप् + ल्युट् ] घृणा करने वाला, नापसन्द
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सम० -
से भरा हुआ,