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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ४८३ द्वन्द्वैर११२६, जोड़ा, (जैसे कि सुख-दुःख, शीत और उष्ण ) योजयच्चेमाः सुखदुःखादिभिः प्रजाः - मनु० ६८१, सर्वर्तुनिर्वृतिकरे निवसन्नपैति न द्वन्द्वदुःखमिह किचिदकिचनोऽपि शि० ४।६४ 4 झगड़ा, लड़ाई, कलह, टाण्टा, युद्ध 5. कुश्ती 6. संदेह, अनिश्चिति 7. किला, गढ़ 8. रहस्य, द्वः ( व्या० में) समास के चार मुख्य भेदों में से एक जिसमें दो या दो से अधिक शब्द एक साथ जोड़ दिये जाते हैं, जो कि असमस्त होने की अवस्था में एक ही विभक्ति के रूप 'और' (समुच्चय बोधक अव्य० ) अव्यय से जोड़े जाते - - चार्थे द्वन्द्वम् - पा० २२ २९, द्वन्द्वः सामासिकस्य च भग० १०१३३ । सम० चर, चारिन् (वि०) जोड़े के रूप में रहने वाले - (पुं०) चकवा - दयिता द्वन्द्वचरं पतत्त्रियम् - रघु० ८५५, १६०६३, भावः वैपरीत्य, अनबन - भिन्नम् स्त्री और पुरुष ( नर या मादा) का वियोग, भूत ( वि० ) 1. एक जोड़ा बनाते हुए 2. संदिग्ध, अनिश्चित - युङ्खम् मल्लयुद्ध, अकेलों (दो) को लड़ाई । द्वन्द्वशः (अव्य० ) ( ' द्वन्द्व + गस् ] दो दो करके जोड़े में । द्वय ( वि० ) ( स्त्री० यी) [ द्वि + अयट् ] दोहरा, दुगुना, दो प्रकार का, दो तरह का - अनुपेक्षणे द्वयो गतिः मुद्रा० ३, भर्तृ० २।१०४, अने० पा०, कभी कभी ब० व० में भी प्रयुक्त, दे० शि० ३।५७, यम् 1. जोड़ी, युगल, युग्म ( प्रायः समास के अन्त में प्रयुक्त ) - द्वितयेन द्वयमेव संगत- रघु० ८ ६, ११९, ३८, ४/४2. दो प्रकार की प्रकृति, द्वैधता 3. मिथ्यात्व - यी जोड़ी, युगल । सम० – अतिग (वि०) जिसका मन रज और तमस्' इन दो गुणों के प्रभाव से मुक्त हो गया है, सन्त, महात्मा, आत्मक द्वैधप्रकृति से युक्त, - वादिन्, द्विजिह्न, कपटी । द्वयस ( वि० ) ( स्त्री० सी) 'जहाँ तक हो सके' 'इतना ऊँचा जितना कि' 'इतना गहरा जितना कि' 'पहुंचने वाला' अर्थ का बतलाने वाला प्रत्यय जो संज्ञा शब्दों के साथ लग गुल्फयसे मदपयसि - का० ११४, नारीनितंबसं बभूव (अभः) रघु० १६/४६, शि० ६।५५ । द्वापरः, रम् [द्वाभ्यां सत्य त्रेतायुगाभ्यां परः पृषो० - तारा० ] 1. विश्व का तृतीय युग - मनु० ९।३०१२. पासे कावह पार्श्व जिस पर 'दो' को संख्या अंकित है 3. संदेह, राशोपंज, अनिश्चितता । द्वामुष्यायण ( वि० ) [ अदस् + फक्=आमुष्यायणः ष० त० ] दे० 'द्वयामुष्यायण' । द्वार (स्त्री० [दु + णिच् + विच् ] 1. दरवाजा, फाटक - याज्ञ० ३।१२, मनु० ३।३८ 2. उपाय, तरकीब, द्वारा 'के उपाय से' की मार्फत । सम० - स्थः, -स्थितः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ) ( द्वाःस्थः, द्वास्थ: द्वाः स्थितः, द्वास्थितः ) द्वारपाल, ड्योढ़ीवान् । द्वारम् [हृ + णिच् + अच् ] 1. दरवाजा, तोरण, प्रवेशद्वार, फाटक 2. मार्ग, प्रवेश, घुसना, मुंह, अथवा कृतवाग्द्वारे वंशेऽस्मिन् — रघु० ११४, ११।१८ ३. शरीर के द्वार या छिद्र ( ये गिनती में नौ हैं दे० खम् ) कु० ३।५०, भग० ८।१२, मनु० ६।४८ 4. मार्ग, माध्यम, साधन या उपाय द्वारेण 'में से' 'के साधन से' । सम० --अधिपः ड्योढ़ीवान्, द्वारपाल, कण्टकः दरवाजे की कुंडी, कपाटः, -टम् दरवाजे का पत्ता या दिला, - गोपः नायकः, पः, -पालः, पालकः, द्वारपाल, ड्योढ़ीवान्, पहरेदार, दारुः सागवान की लकड़ी, पट्टः 1. दरवाजे का दिला 2. दरवाज का पर्दा, -- पिंडी दरवाजे की देहली, पिधानः दरवाजे की कुंडी -- बलिभुज् (पुं० ) 1. कौवा 2. चिड़िया, बाहुः दरवाजे की बाजू, द्वार का पाखा, - - यन्त्रम् ताल, कुंडी -स्थः द्वारपाल | द्वार (रि) का [ द्वार+कै+क ] गुजरात के पश्चिमी किनारे पर स्थित कृष्ण की राजधानी ('द्वारका' के के वर्णन के लिए दे० शि० ३।३३-६० ) । सम० - ईशः कृष्ण का विशेषण । द्वारवती, द्वारावती द्वारका । द्वारिक: द्वारिन् (पुं०) ड्योढ़ीवान्, द्वारपाल । द्वि ( संख्या ० वि० ) ( कर्तृ ० द्वि० व० पुं० द्वौ, स्त्री०, नपुं० - द्वे) दो, दोनों सद्यः परस्परतुलामधिरोहतां द्वे - रघु० ५।६८, ( विशे० दशन् विशति और त्रिशत् से पूर्व द्वि को 'द्वा' हो जाता है, चत्वारिंशत्, पञ्चाशत्, षष्टि, सप्तति और नवति से पूर्व द्वि को द्वा होता है परन्तु विकल्प से, और अशीति से द्वि में कोई परिवर्तन नहीं होता) | सम० - अक्ष (वि०) दो आँखों वाला, अक्षर (वि०) द्वयक्षरी, दो अक्षरों से संबद्ध, --- अडगुल ( वि०) दो अंगुल लम्बा, (-लम्) दो अंगुल की लम्बाई, अणुकम् दो अणुओं का संघात, -- अर्थ ( वि० ) 1. दो अर्थ रखने वाला 2. संदिग्ध, अस्पष्ट या द्वयर्थक 3. दो बातों का ध्यान रखने वाला, अशीत ( वि०) बयासीवाँ, -- अशीतिः ( स्त्री० ) बयासी, अष्टम् तांबा, अहः दो दिन का समय, आत्मक (वि०) 1. दो प्रकार के स्वभाव वाला 2. दो होने वाला, - आमुष्यायणः दो पिताओं का पुत्र, गोद लिया हुआ बेटा, जो अपन मूल पिता की सम्पत्ति का भी साथ ही साथ उत्तराधिकारी हो । -- ऋचम् (द्वृचम्, द्वयर्चम्) ऋचाओं का संग्रह, कः, —ककारः 1. कौवा ( क्योंकि 'काक' शब्द में दो 'क' होते हैं) 2. चकवा ( क्योंकि कोकं शब्द में भी दो 'क' हैं), - ककुद (पुं०) ऊँट, For Private and Personal Use Only
SR No.020643
Book TitleSanskrit Hindi Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaman Shivram Apte
PublisherNag Prakashak
Publication Year1995
Total Pages1372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size37 MB
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