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( ४३५ ) तूस्तम् [ तूस्+तन्, दीर्घः ] 1. जटा 2. धूल 3. पाप गया, तत्पुरुषः करणकारक का समास,-प्रातिः 4. कण, सूक्ष्म जरा ।।
(पुं० स्त्री०) हीजड़ा। तंह, (तुदा० पर० -तृहति) मारना, चोट पहुँचाना-दे० | तृतीयिन् (वि०) [ तृतीय+इनि ] तीसरे अंश का अधिकारी तृह ।
(दाय का)।
तुद् (भ्वा० पर०, रुघा० उभ० तर्दति, तणत्ति, तम्प्ते, तृष्ण) तुणम् तिह+क्न, हलोपश्च ] 1. घास---कि जीणं तण
1. फाड़ना, खण्डशः करना, चीरना 2. मार डालना, मत्ति मानमहतामग्रेसरकेसरी भर्तृ० २।२९ 2. घास
नष्ट करना, संहार करना---भट्रि० ६।३८, १४१३३, को पत्ती, सरकण्डा, तिनका 3. तिनकों की बनी कोई चीज़ (जैसे बैठने की चटाई), तुच्छता के प्रतीक रूप
१०८, १५१३६, ४४ 3. मुक्त करना 4. अवज्ञा में प्रयुक्त---तृणमिव लघुलक्ष्मी व तान्संरुणद्धि-भर्त०
करना। २।१७, दे० 'तृणीकृ' भी। सम०-- अग्नि: 1. भुस
तप । (दिवा०, स्वा०, तुदा० पर० तृप्यति, तृप्नोति, तृपति, या तिनकों की आग-मनु० ३११६८ 2. जल्दी बुझ
तृप्त) 1. संतुष्ट होना, प्रसन्न होना, परितुष्ट होना जाने वाली आग,-- अञ्जनः गिरगिट,---अटवी ऐसा
--अद्य तपस्य॑न्ति मांसादा:-भट्रि० १६।२९, प्राशीन्न जङ्गल जिसमें घास की बहुतायत हो,-आवर्तः हवा
चातृपत् क्रूरः--१५।२९, (प्रायः करण के साथ, का बबण्डर, भभूला, असृज् (नपु०), कुकुमम्,
परन्तु कभी-कभी संबंच्या अधिक के साथ भी)-कोन .....गौरम् एक प्रकार का सुगन्ध द्रव्य,-इन्द्रः ताड का
तृप्यति वित्तेन-हि० २।१७४, तृप्तस्तत्पिशितेन-भर्तृ० वृक्ष,-उल्का तिनकों की मशाल, फूस की आग की
२२३४, नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः, लौ,-ओकस् (नपुं०) फँस की झोपड़ी, काण्डः, उम्
नातङ्क सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचना:-पंच० ११३७, घास का ढेर, कुटी-कुटीरकम् घास फँस की कुटिया
तस्मिन्हि तत्पुर्देवास्तते यज्ञे-महा० 2. प्रसन्न करना, -केतुः ताड का वृक्ष, --गोधा एक प्रकार की गिर
परितृप्त करना,-प्रेर० परितप्त करना, प्रसन्न करना गिट, गोह, प्राहिन् (पुं०) नीलम, नीलकान्त मणि,
---इच्छा० तितृप्सति, तितर्पिषति, ii (भ्वा० पर० --चरः गोमेद, एक प्रकार का रत्न,- जलायुका,
चुरा० उभ०-तर्पति, तर्पयति-ते) 1. जलाना, --जलका तितली का लार्वा, - द्रुमः 1. ताड का वृक्ष,
प्रज्वलित करना 2. (आ.) सन्तुष्ट होना। खजर 2. नारियल का पेड़ 3. सुपारी का पेड़ 4. केतकी | तृप्त (वि.) [तृप्+क्त ] संतप्त, संतूष्ट, परितुष्ट । का पौधा 5. छुहारे का वृक्ष, धान्यम् जङ्गली अनाज तृप्तिः (स्त्री०) [तुप+क्तिन् ] संतोष, परितोष, रघु० जो बिना बोय उगे,-ध्वजः 1. ताड का वृक्ष 2. बांस, २२३९, ७३, ३३३ मनु० ३।२७१, भग० १०॥१८ -- पीडम दस्त-ब-दस्त लड़ाई, पूली चटाई, सरकण्डो 2. अतितृप्ति, ऊब 3. प्रसन्नता, परितुष्टि । का बना मढ़ा--प्राय (वि.) तिनके के मूल्य का, सृष (दिवा० पर० तृष्यति, तृषित) 1. प्यासा होना,-भट्टि. निकम्मा, नगण्य,----बिन्दुः एक ऋषि का नाम-रघु० ७.१०६, १४॥३०, १५।५: 2. कामना करना, लाला८७९,–मणिः एक प्रकार का रत्न (अम्बर, राल), यित होना, उत्सुक या उत्कंठित होना।
-मत्कुणः जमानत या जामिन प्रतिभू (सम्भवतः | तृष् (स्त्री०) [ तृष्-+क्विप्] (कर्तृ० ए० व०-तृट्-२) 'ऋणमत्कुण' का अशुद्ध पाठ), राजः 1. नारियल का 1. प्यास-तृषा शुष्यत्यास्य पिबति सलिलं स्वादु पेड़ 2. बांस 3. ईख, गन्ना 4. ताड़ का पेड़-. वृक्षः सुरभि-भर्तृ० ३।९२, ऋतु० ११११ 2. लालसा, 1. ताड का पेड़, खजूर का वृक्ष 2. छुहारे का वृक्ष उत्सुकता। 3. नारियल का पेड़ 4. सुपारी का पेड़,-शीतमें | तषा-दे० तृष् । सम-आर्त (वि०) प्यास से आकुल, एक प्रकार का सुगन्धित घास,-सारा केले प्यासा,--हम् पानी। का पेड़,-सिंहः कुल्हाड़ा, हर्पः घास फूस का | तृषित (भू० क० कृ०) [ तृष्+क्त ] 1. प्यासा--घट. बना घर।
९, ऋतु. १।१८ 2. लालची, प्यासा, लाभ का तण्या [ तृण-----टाप ] घास का ढेर।।
इच्छुक । तृतीय (वि.) [त्रि+तीय, संप्र०] तीसरा,--यम् तीसरा | तुष्णज् (वि.) [तृष+नजिक] लोभी, लालची, प्यासा।
भाग । सम०-प्रकृतिः (पुं०, स्त्री०) हीजड़ा। तृष्णा [ तृष्+न+टाप् किच्च ] 1. प्यास (शा. और तृतीयक (वि.) [तृतीय+कन् ] प्रति तीसरे दिन होने आलं०)--तृष्णा छिनत्त्यात्मनः हि० १११७१, ऋतु० वाला, (बुखार) तैया।
२१५ 2. इच्छा, लालसा, लालच, लोभ, लिप्सा तृतीया [तृतीय+टाप् ] 1. चांद्र पक्ष का तीसरा दिन, तीज -तृष्णां छिन्धि भर्तृ० २१७७, ३३५, रघु० ८।२।
2. (व्या० में) करण कारक या उसके विभक्ति-चिह्न। सम-क्षयः इच्छा का नाश, मन की शान्ति, संतोष । सम-कृत (वि०) (खेत आदि) तीन बार जोता तृष्णाल (वि.) [तृष्णा+आलु ] बहुत प्यासा ।
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