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( ३६५ )
सरल नामक वृक्षविशेष, उदः 'घी का समुद्र' सात | समुद्रों में से एक, ओवन घी से युक्त उबले हुए चावल, कुल्या घी की नदी, दीधितिः अग्नि, धारा घी की अविच्छिन्न धार, पूरः वरः एक प्रकार की मिठाई, लेखनी घी का चम्मच । घृताची [घृत + अञ्चु + क्विप् + ङीष् ] 1. रात 2. सरस्वती 3. एक अप्सरा ( इन्द्र के स्वर्ग की मुख्य अप्सराएँ निम्नांकित हैं-- घृताची मेनका रम्भा उर्वशी च तिलोत्तमा, सुकेशी मञ्जुघोषाद्याः कथ्यन्तेऽप्सरसो बुधैः) | सम० - गर्भसंभवा बड़ी इलायची ।
घृष् ( वा० पर० - घर्षति, घृष्ट) 1. रगड़ना, घिसना - अद्यापि तत्कनककुण्डलघृष्टमास्यम् - चौर० ११, पंच० १।१४४ 2. कूंची करना, परिष्कृत करना ( मांजना ), चमकाना 3. कुचलना, पीसना, चूरा करना द्रौपद्या ननु मत्स्यराजभवने घुष्टं न किं चन्दनम् पंच० ३।१७५ 4. होड़ करना, प्रतिद्वन्द्वी होना (जैसा कि 'संवृष्' में) उद्-, खुरचना, चूड़ामणिभिरुद्धृष्टपादपीठम् महीक्षिताम् - रघु० १७/२८, सम् प्रतिद्वन्द्विता करना, होड़ाहोड़ी करना, प्रतिस्पर्धा करना--स प्रयोगनिपुणैः प्रयोक्तृभिः संघर्ष सह मित्रसंनिधौ रघु० १९/३६ 2. रगड़ना, खुरचना ।
घृष्टिः [ घृष् + क्तिच् ] सूअर ( स्त्री०) 1. पीसना, चूरा करना, खुरचना 2. होड़ाहोड़ो, प्रतिद्वन्द्विता, प्रतियोगिता । घोट:, घोटक: [ घुट् + अच्, ण्वुल् वा ] घोड़ा । -अरि: भंसा ।
सम०
घोटी, घोटिका [ घोट + ङीष्, घुट् + ण्वुल् + टापु, इत्वम् ] घोड़ी, सामान्य अश्व -- आटोकसेऽङ्ग करिघोटि पदातिजुषि वाटिभुवि क्षितिभुजाम्--- अस्व० ५ । घोण (न) सः [ गोनस, पृषो० ] एक प्रकार रेंगने वाला जन्तु घोणा [ धुण् + अच्+टाप् ] 1. नाक, घोणोन्नतं मुखम् —मृच्छ० ९।१६ 2. घोड़े की नथुना, (सूअर की ) थूथन -- घुर्षु रायमाणघोरघोणेन - का० ७८ । घोण (पु० ) [ घोणा + इनि ] सूअर ।
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घोटा. [ घुणु + +टाप् ] उन्नाव का वृक्ष | घोर (वि० ) [ घुर् + अच् ] 1. भयंकर, डरावना, भोषण,
भयानक, – शिवाघोरस्वनां पश्चादबुबुधे विकृतेति ताम् - रघु० १२।३९, तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव - महा०, घोरं लोके विततमयशः -- उत्तर० ७६, मनु० १५० १२/५४ 2. हिस्र, प्रचण्ड - रः शिव, -- रा रात, - रम् 1. संत्रास, भीषणता 2. विष । सम० - आकृति - दर्शन ( वि०) देखने में डरावना, भयंकर विकराल, पुष्यम् कांसा, रासन:, - - रासिन्, - वाशन:, - वाशिन् (पुं०) गीदड़, रूपः शिव का विशेषण ।
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घोल:, - लम् [ घुर् + घञ्ञ, रस्य ल: ] मट्ठा, घुला हुआ दही जिसमें पानी न हो ( तत्तु स्नेहमजलं मथितं घोलमुच्यते - सुश्रु० )
घोषः [ घुष् + घञ ] 1. कोलाहल, हल्ला, हंगामा - स घोष धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्-भग० १११९, इसी प्रकार रथ, तुर्य, शंख आदि 2. बादलों की गरज - स्निग्धगम्भीरघोषम् - मेघ० ६४ 3. घोषणा 4. अफवाह, जनश्रुति 5. ग्वाला हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् -- रघु० १।४५ 6. झोपड़ी, ग्वालों की बस्ती - गङ्गायां घोषः -- काव्य० २, घोषादानीयमृच्छ० ७ 7. ( व्या० में) घोषव्यंजनों के उच्चारण मैं प्रयुक्त घोषध्वनि 8 कायस्थ, पम् कांसा | घोषणम् - णा [ घुप् +-त्युट् ] प्रख्यापन, प्रकथन, उच्च
स्वर से बोलना, सार्वजनिक एलान – व्याघातो जयघोषणादिषु बलादस्मद्बलानां कृतः- मुद्रा० ३।२६, रघु० १२।७२ ।
घोषयित्नुः [ घुत्र + णिच् + इत्नुच् ] 1. ढिढोरची, भाट, हरकारा 2. ब्राह्मण 3. कोयल ।
न ( वि० ) ( स्त्री० घ्ती ) [ केवल समास के अन्त में
प्रयोज्य ] [ हन् +क, स्त्रियां ङीप् ] वध करने वाला विनाशक, दूर करने वाला, चिकित्सक - ब्राह्मणघ्नः, बालघ्नः, वातघ्नः, पित्तघ्नः, वञ्चित करने वाला, दूर करने वाला, पुण्यघ्न, धर्मघ्न आदि ।
प्रा (भ्वा० पर० जिघ्रति, घ्रात घ्राण ) 1. सूंघना, पता लगाना, सूंघ का प्रत्यक्ष ज्ञान करना- स्पृशन्नपि गजो हन्ति जिघ्रन्नपि भुजङ्गमः - हि० ३।१४, भामि० १९९, चुंबन करना प्रेर०- ( घ्रापयति ) सुंधवाना - भट्टि० १५ १०९, ( अव, आ, उप, वि, सम् आदि उपसर्ग लगने पर भी इस धातु के अर्थों में विशेष अन्तर नहीं आता -- गन्धमाघ्राय चोव्याः - मेघ० २१, आमोदमुपजिवन्ती - रघु० ११४३, दे० भट्टि० २ १० १४ १२, रघु० ३।३, १३७०, मनु० ४।२०९ भी ) ।
घ्राण (भू० क० कृ० ) [घ्रा + क्त ] सूंघा, -- णम् सूंघने की क्रिया, घ्राणेन सूकरो हन्ति मनु० ३।२४१2. गंध, बू 3. नाक बुद्धीन्द्रियाणि चक्षुःश्रोत्र घ्राणरसनात्वगाख्यानि सां० का० २६, ऋतु०६।२७, मनु० ५। १३५ । सम० - इन्द्रियम् सूंधने की इन्द्रिय, नाक-नासाप्रवर्ति घ्राणम् - तर्क सं०, चक्षुष् (वि०) जो आँखों का काम नाक से लेता है - अर्थात् अंधा (जो संघ कर अपने मार्ग का ज्ञान प्राप्त करता है), तर्पण ( वि० ) नाक को सुहावना, या सुखकर खुशबूदार, सुगन्धयुक्त ( - णम्) खुशबू, सुगन्ध । प्रातिः (स्त्री० ) [घा + क्तिन] सुंघन की क्रिया - घातिरयमयोः मनु० ११।६८ 2. नाक ।
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