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- रघु० ८८४, क्लीबान् पालयिता - मृच्छ० ९।५ । क्वणः, क्वणनम्, क्वणितं, क्वाण: [ क्वणु -+- अप्, ल्युट् क्तं,
3. कायर 4. नीच अधम 5. सुस्त 6. नपुंसक लिंग का, बः, बम् (वः, – बम् ) 1. नामर्द, हिजड़ा,
घञ्न् वा ] 1. सामान्य शब्द 2. किसी भी वाद्ययंत्र की ध्वनि ।
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मूत्र फेनिलं यस्य विष्ठा चाप्सु निमज्जति मेढ चोन्मादशुक्राभ्यां हीनं क्लीः स उच्यते - दायभाग में उद्धृत कात्यायन 2. नपुंसक लिंग ।
क्लेदः [ क्लिद् + घञ्ञ, ] गीलापन, आर्द्रता, तरी, नमी - शा० १।२९, रघु० ७।२१ 2. बहने वाला, घाव से निकलने वाला मवाद 3. दुःख, कष्ट रघु० १५/३२, ( = उपद्रव, मल्लि०) 1
क्लेशः [ क्लिश् + ञ्ञ ] पीड़ा, वेदना, कष्ट, दुःख, तकलीफ -- किमात्मा क्लेशस्य पदमुपनीतः श० १, क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते - कु० ५।८६, भग० १२/५ 2. गुस्सा, क्रोध 3. सांसारिक कामकाज । सम० -क्षम ( वि० ) कष्ट सहने में समर्थ ।
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(व्यम्) [ क्लीब (व) + ष्यञ ] 1. नामर्दी ( शा० ) - वरं क्लैब्यं पुंसां न च परकलत्राभिगमनम् - पंच० १ 2. पुरुषार्थहीनता, भीरुता, कायरता - क्लैब्यं मास्म गमः पार्थ - भग० २।३ 3. अनुपयुक्तता, नामर्दी, शक्ति - हीनता -- रघु० १२।८६ । क्लोमम् [ क्लु + मनिन् ] फेफड़े । aa (अव्य० ) [ किम् + अत्, कु आदेश: ] 1. किघर, कहाँ -क्व तेऽन्योन्यं यत्नाः क्व च नु गहनाः कौतुकरसाः -- उत्तर० ६ ३३, क्व क्व ( जब किसी समान वाक्य खंड में प्रयुक्त होता है तो इसका अर्थ है-'भारी अंतर' 'असंगति' - क्व रुजा हृदयप्रमाथिनी क्व च ते विश्वसनीयमायुधम् - मालवि० ३१२, क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः- रघु० ११२, कि० १०६, २० २०१८ 2. कभी कभी 'क्व' का प्रयोग 'किम्' शब्द के अधि० का होता है--क्व प्रदेशे - अर्थात् कस्मिन् प्रदेशे (क) - अपि 1. कहीं, किसी जगह 2. कभी कभी (ख), - चित् 1. कुछ स्थानों पर प्रस्निग्धाः क्वचिदिङगुदीफलभिदः सूच्यन्त एवोपलाः श० ११४, ऋतु० ११२, रघु० १४१ 2. कुछ बातों में - क्वचिद् गोचरः क्वचिन्न गोचरोऽर्थः क्वचित् क्वचित् (क) एक जगह--दूसरी जगह, यहाँ-वहाँ क्वचिद्वीणावाद्यं क्वचिदपि च हा हेति रुदितम् - भर्तृ० ३११२५ १।४ ( ख ) कभी-कभी ( समय सूचक) क्वचित्पथा संचरते सुराणाम्, क्वचित् घनानां पततां क्वचिच्च - रघु० १३।१९ । कवण ( स्वा० पर० - क्वणति, क्वणित ) 1. अस्पष्ट शब्द करना, झनझन शब्द, टनटन शब्द- इति घोषयतीव डिण्डिमः करिणो हस्तिपकाहतः क्वणन् हि० २।८६, क्वणन्मणिनुपूरौ - अमरु २८, ऋतु० ३।३६, मेघ० ३६ 2. भिनभिनाना, (भौरों का ) गुंजन, अस्पष्ट गायन --कु० १०५४, उत्तर० ३।२४, भट्टि० ६८४ ।
(वि० ) [ क्व + त्यप्] किस स्थान से संबंध रखने वाला, कहाँ पर होने वाला ।
क्वय् ( Faro पर० क्वथति, क्वथित) 1. उबालना काढ़ा बनाना 2. पचाना ।
क्वयः [ स्वाथ् + अच्, घञ्ञ वा] काढ़ा, लगातार मंदी आँच में तैयार किया गया घोल ।
क्वचित्क ( वि० ) [स्त्री० की ] अकस्मात् घटित, विरल, असाधारण, – इति क्वाचित्कः पाठः ।
क्ष [ क्षि+ड ] 1. नाश 2. अन्तर्धान, हानि 3. बिजली 4. खेत 5. किसान 6. विष्णु का नरसिंहावतार
7. राक्षस ।
क्षण (न्) (तना० उभ० - क्षणोति, क्षणुते, क्षुत्त) 1. चोट पहुंचाना, क्षति पहुँचाना-इमां हृदि व्यायतपातमक्षणोत् कु० ५1५४ 2 तोड़ना, टुकड़े २ करना - (धनुः ) त्वं किलानमित पूर्व मक्षणोः - रघु० ११।७२, उप-, परिवि - उसी अर्थ में प्रयोग जो 'क्षण' का मूल अर्थ है । क्षण:, - णम् [ क्षण + अच् ] 1. लम्हा, निमेष, एक सैकंड
से ४।५ भाग के बराबर समय की माप, क्षणमात्रषिस्तस्थौ सुप्तमीन इव हृदः - रघु० १०७३, २६०, मेघ० २६, -- क्षणमवतिष्ठस्व-कुछ देर ठहरो 2. अवकाश -- अहमपि लब्धक्षणः स्वगेहं गच्छामि - मालवि० १, गृहीतः क्षण:- ०२, मेरा अवकाश आपके सुपुर्द है अर्थात् आपका कार्य कर देने का मैं आपको वचन देता हूं 3. उपयुक्त क्षण या अवसर - रहो नास्ति क्षणो नास्ति नास्ति प्रार्थयिता नरः पंच० १।१३८ मेघ० ६२, अधिगतक्षणः – दश० १४७ 4. उत्सव, हर्ष, खुशी 5. आश्रय, दासता 6. केन्द्र, मध्यभाग । सम० --अन्तरे ( अव्य० ) दूसरे क्षण, कुछ देर के पश्चात्, क्षेपः क्षणिक विलंब, दः ज्योतिषी ( -- दम् ) पानी (वा) 1. रात - क्षणादथैष क्षणदापतिप्रभः नं० १२६७, रघु० ८०७४, १६ ४५, शि० ३।५३ 2. हल्दी करः पतिः चाँद, शि० ९।७०, चरः रात में घूमने वाला, राक्षस, ---सानुप्लवः प्रभुरपि क्षणदाचराणाम् - रघु० १३ ७५, ● आध्य रात्रि में अन्धापन, रतौंधी, धृतिः (स्त्री० ) - प्रकाशा, - प्रभा बिजली, - निश्वासः शिशुक, भङ्गुर ( वि०) क्षणस्थायी, चंचल, नश्वर - हि० ४११३०
-मात्रम् ( अव्य० ) क्षणभर के लिए, रामिन् (पुं० ) कबूतर - विध्वंसिन ( वि०) क्षणभर में नष्ट होने वाला (पुं०) नास्तिक दार्शनिकों का सम्प्रदाय जो यह मानता है कि प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण नष्ट होकर नया बनता रहता है । क्षण: [ क्षण् + अतु ] घाव, फोड़ा।
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