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( २६८ ) (स्त्री०-स्था) 1. कायस्थ जाति की स्त्री | वधुः शयने--काव्य०१०, --हेतः क्रियात्मक या क्रिया2. आंवले का वृक्ष (स्त्री०-स्थी) कायस्थ की पत्नी, परक कारण (विप० ज्ञापक हेतु)। --स्थित (वि०) शरीरगत, शारीरिक ।
कारणम् कृ+णिच+ ल्युट] 1. हेतू, तर्क –कारणकोपाः कायक (स्त्री०-यिका), कायिक (स्त्री०-की) (वि.)
कुटुम्बिन्य:-मालवि० श२८, रघु० १।७४, भग०१३। [काय-बुज, स्त्रियां टाप्, इत्वम्-काय+ठक
२१ 2. आधार, प्रयोजन, उद्देश्य-कि पुन: कारणम्स्त्रियां ङीप्] शरीर संबंधी, शारीरिक, शरीर विष
महा०, याज्ञ० २।२०३, मनु० ८।३४७, कारणमानुषीं यक---कायिकतप:--मनु० १२१८,--का ब्याज (धन
तनुम्-रघु० १६।२२ 3. उपकरण, साधन-याज्ञ० के उपयोग के बदले में जो कुछ दिया जाय)। सम०
३।२०६५ 4. (न्या० द. में) वह कारक जो निश्चित -~-वृद्धिः (स्त्री०) धरोहर रखे हुए किसी पशु या
रूप से किसी फल का पूर्ववर्ती कारण हो, या 'मिल' के वाणिज्य-सामग्रो के उपयोग के बदले मजरा दिया
मतानुसार-'पूर्ववर्ती कारण या उनका समूह जिन पर गया ब्याज 2. एसा ब्याज जिसकी अदायगी से
कार्य निश्चित रूप से, बिना किसी लागलपेट के निर्भर मूलधन पर कोई प्रभाव न पड़े, धरोहर रक्खे हुए पशु
करता है; नैयायिकों के मतानुसार इसके तीन भेद को उपयोग म लाना।
हैं:-(क) समवायि (घनिष्ठ और अन्तहित) जैसा कार (वि.) (स्त्री०-री) [कृ+अण, घा वा] (समास कि कपड़े का कारण तन्तु,---धागे (ख) असमवायि
के अन्त में) बनाने वाला, करने वाला, सम्पादन करन (जो न तो घनिष्ठ हो न अन्तहित) जैसा कि कपड़े वाला, कार्य करने वाला, निर्माता, कर्ता, रचयिता के लिए तन्तुओं का संयोग (ग) निमित्त (उपकरणा-ग्रंथकारः = रचयिता, कुंभकारः, स्वर्णकारः आदि, त्मक) जैसा कि कपड़े के लिए जुलाहे की खड्डी -र: 1. कृत्य, कार्य जैसा कि 'पुरुषकार' में 2. किसी 5. जननात्मक कारण-सृष्टिकर्ता, पिता, कू० ५।८१ एसी ध्वनि या शब्द को प्रकट करने वाला पद जो 6. तस्व, तत्त्व-सामग्री-याज्ञ० ३११४८, भग० १८१३ विभक्ति चिह्न से युक्त न हो जैसा कि अकार,-मनु० 7. किसी नाटक या काव्य का मूल या कथावस्तु आदि २२७६, १२६, ककार, फूत्कार आदि 3. प्रयास, चेष्टा 8. इन्द्रिय 9. शरीर 10 चिह्न, दस्तावेज, प्रमाण या -शि० १९।२७ 4. धार्मिक तप 5. पति, स्वामी, अधिकार-पत्र-मनु० ११५८४ 11 जिसके ऊपर कोई मालिक 6. संकल्प 7. शक्ति, सामथ्र्य 8. कर या चंगी मत या व्यवस्था निर्भर करती है। सम०--उत्तरम् 9. हिम का ढर 10 हिमालय पर्वत। सम०---अवरः विशेष तर्क, अभियोग के कारण को मुकरना (स्वीकार एक मिश्रित या नीचजाति का पुरुष जो निषाद पिता न करना), आरोप को सामान्यतः मान लेना परन्तु व वैदेही माता से उत्पन्न हुआ--तु० मनु० १०॥३६, वास्तविक (वंध) तथ्य को अस्वीकृत कर देना,--कार-~कर (वि.) कार्य करने वाला, अभिकर्ता,-भूः णम् प्रारंभिक या प्राथमिक कारण, अण,—गुणः कारण चुंगीघर ।
का गुण,-भूत (वि.) 1. जो कारण बना हो 2. कारक (वि०) (स्त्री०–रिका) [कृ+बुल] (प्रायः समास
कारण बनने वाला,-माला एक अलंकार 'कारणों की के अन्त में) 1. बनान वाला, अभिनय करने वाला,
शृंखला'-यथोत्तरं चेत्पूर्वस्य पूर्वस्यार्थस्य हेतूता, तदा करन वाला, सम्पादन करने वाला, रचने वाला, कर्ता
कारणमाला स्यात्-काव्य०१०-उदा० भग० २।६२, आदि--स्वप्नस्य कारक:---याज्ञ० ३११५०, २।१५६,
६३, सा० द०७२८,–वादिन (पू) अभियोक्ता, वर्णसंकरकारक:-भग० ११४२, मनु० ७२०४ पंच०
वादो,--वारि (नपुं०) सृष्टि के आरंभ में उत्पन्न मूल ५।३६ 2. अभिकर्ता-कम् । (व्या० में) संज्ञा और
जल,---विहीन (वि.) विना कारण के,-शरीरम् क्रिया के मध्य रहने वाला संबंध (या संज्ञा और उससे
(वेदान्त द०) शरीर का आन्तरिक बीजारोपण, मूलसंबद्ध अन्य शब्द) इस प्रकार के कारक गिनती म सूत्र, या कारणों की रूपरेखा । छः ह जा 'संबंधकारक' को छोड़कर शेष विभक्तियों कारणा| कृ+-णिच् +युचु+टाप् ] 1. पीड़ा, वेदना से संबद्ध है १. कर्ता २. कर्म ३. करण ४. सम्प्रदान 2. नरक में डालना। ५. अपादान और ६. अधिकरण 2. व्याकरण का वह कारणिक (वि.) कारण+ठक] 1. परीक्षक, निर्णायक भाग जो इनके व्यवहार को बतलाता है -- अर्थात् 2. कारण परक, नैमित्तिक! वाक्य रचना या कारक-प्रकरण । सम०-दीपकम् - कारण्डवः [ रम् +5=रण्डः, ईषत् रण्ड:-कारण्डः तं (अलं. शा० म) एक अलंकार जिसमें एक ही वाति-वा+क] एक प्रकार की बत्तख-तप्तं कारक उत्तरोतर अनेक क्रियाओं से संयुक्त हो--उदा० वारि विहाय तीरनलिनों कारण्डव: सेवते-विक्रम -खिद्यति कणति वेल्लति विचलति निमिषति विलोक- २।२३। यति तिर्यक, अन्तनंदति चुम्बितुमिच्छति नवपरिणया । कारन्धमिन् (प.) [कर एव कारः, तं घमति, कार+ध्मा
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