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प्रतिमा 4. कुट्टिनी, दूतिका, गाय । सम० - शीलः सदा यज्ञ करने वाला |
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इटुचरः [ इषा कामेन चरति इष् + क्विप् इट् + चर् + अच् ] बैल या बछड़ा जो स्वच्छन्दता पूर्वक घूमने के लिए छोड़ दिया जाय ।
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इडा-ला [ इल् + अच्, लस्य डत्वम् ] 1. पृथ्वी 2. भाषण 3. आहार 4. गाय 5. एक देवी का नाम, मनु पुत्री 6. बुध की पत्नी तथा पुरूरवा की माता । [ इडा +, इत्वम् ] पृथ्वी ।
इतर (सा० वि० ) ( स्त्री० - रा, नपुं० - रत् ) [ इना कामेन तरः - इति + अप् ] 1. अन्य, दूसरा, दो में से अवशिष्ट - इतरो दहने स्वकर्मणाम् रघु० ८ २०, अने० पा० 2. शेष या दूसरे ( ब० व० ) 3. दूसरा, से भिन्न ( मपा० के साथ ) - इतरतापशतानि यथेच्छया वितर तानि सहे चतुरानन उद्भट, इतरो रावणादेव राघवानुचरो यदि भट्टि० ८ १०६ 4. विरोधी, या तो अकेला स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त होता है अथवा विशेपण के साथ, या समास के अन्त में - जङ्गमानीतराणि च - रामा०, विजयायेतराय वा - महा० इसी प्रकार दक्षिण (बायां) वाम (दायां) आदि 5. नीच अधम, गंवार, सामान्य -- इतर इव परिभूय ज्ञानं मन्मयेन जडीकृत: का० - १५४ । सम० इतर (सा० वि०) पारस्परिक, स्व-स्व, अन्योन्य - आश्रयः - पारस्परिक निर्भरता, अन्योन्य संबंध योगः 1. पारस्परिक संबंध या मेल, शि० १०१२४, 2. द्वन्द्व समास का एक प्रकार ( विप० समाहार इन्) जहाँ कि प्रत्येक अंग पृथक् रूप से देखा जाता है । इतरतः, इतरत्र ( अव्य० ) [ इतर + तसिल् ल् वा ] अन्यथा, उससे भिन्न, अन्यत्र -- दे० अन्यतः, अन्यत्र | इतरया ( अव्य० ) [ इतर + थाल् ] 1. अन्य रीति से, और ढंग से 2. प्रतिकूल रीति से 3. दूसरी ओर ।
इतरेयुः ( अव्य० ) [ इतर + एद्युस् ] अन्य दिन, दूसरे दिन ।
इत् ( अव्य० ) [ इदम् + तसिल् ] 1. अतः, यहाँ से,
इधर से, 2. इस व्यक्ति से, मुझ से - इतः स दैत्यः प्राप्तश्रीनेत एवार्हति क्षयम् कु० २।२५ 3. इस दिशा में, मेरी ओर, यहाँ — इतो निषीदेति विसृष्टभूमिः - कु० ३।२, प्रयुक्तमप्यस्त्रमितो वृथा स्यात्
- रघु० २।३४, इत इतो देवः - इधर इस ओर महाराज ( नाटकों में ) 4. इस लोक से, 5. इस समय से, इतः इतः - एक ओर दूसरी ओर या एक स्थान में --- दूसरे स्थान पर, यहाँ वहाँ । इति ( अव्य० ) [ इ + क्तिन् ] 1. यह अव्यय प्रायः किसी के द्वारा बोले गये, या बोले समझे गये शब्दों को वैसा का वैसा ही रख देने के लिए प्रयुक्त किया जाता है
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जिसको कि हम अंग्रेजो में अवतरणांश चिन्हों द्वारा प्रकट करते हैं, इस प्रकार कही गई बात हो सकती है। (क) एक अकेला शब्द जो शब्द के स्वरूप को दर्शाने के लिए प्रयुक्त किया गया हो ( शब्दस्वरूपद्योतक ) - राम रामेति रामेति कूजन्तं मधुराक्षरं रामा०, अतएव गवित्याह- भर्तृ०, ( ख ) या कोई प्रातिपदिक जो कि अपने अर्थी को संकेतित करने के लिए कर्तृकारक में प्रयुक्त होता है ( प्रातिपादिकार्थद्योतक ) चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा क्रमादमुं नारद इत्यबोधि सः - शि० १०३, अवैमि चैनामनघेति रघु० १४ ४०, दिलीप इति राजेंदु: - रघु० ११२, (ग) या पूरा वाक्य जब कि 'इति' शब्द वाक्य के केवल अंत में ही प्रयुक्त किया जाता है ( वाक्यार्थद्योतक) -ज्ञास्यसि कियद्भुजो मे रक्षति मौर्वीकिणांक इति - शि० १1१३, 2. इस सामान्य अर्थ के अतिरिक्त 'इति' के निम्नांकित अर्थ हैं (क) 'क्योंकि', 'यतः' 'कारण यह कि' आदि शब्दों से व्यक्तीकरण वंदेशिकोऽस्मीति पृच्छामि - उत्तर० १ पुराणमित्येव न साधु सर्वम् - मालवि० ११२, प्रायः 'किम्' के साथ (ख) अभिप्राय या प्रयोजन- रघु० १।३७ (ग) उपसंहार द्योतक ( विप० 'अर्थ' ), इति प्रथमोऽङ्कः
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-यहाँ प्रथम अंक का उपसंहार होता है (घ) अतः इस प्रकार इस रीति से इत्युक्तवन्तं परिरभ्य दोर्भ्याम् – कि० १११८० (ङ) इस स्वभाव या विवरण वाला --- गौरश्वः पुरुषो हस्तीतिजाति: (च) जैसा कि नीचे है, नीचे लिखे परिणामानुसार--- रामाभिधानो हरिरित्युनाच - रघु० १३।१ (छ) जहाँ तक की हैसियत से, के विषय में ( धारिता और संबंध प्रकट करते हुए ) -- पितेति स पूज्यः, अध्यापक इति निन्द्यः, शीघ्रमिति सुकरम्, निभृतमिति चिन्तनीयं भवेत् - श० ३ (ज) निदर्शन ( प्राय: 'आदि' के साथ) इन्दुरिन्दुरिव श्रीमानित्यादौ तदनन्वयः - चन्द्रा० गौ: शुक्ल चलो डित्य इत्यादी - काव्य० २, ( झ ) मानी हुई सम्मति या उद्धरण - इति पाणिनिः, इत्यापिशलिः, इत्यमर: विश्वः आदि (अ) स्पष्टीकरण । सम० -अर्थः भावार्थ, सार, ---: -- अर्थम् ( अव्य० ) इस प्रयोजन के लिए, अतः, कथा अर्थहीन या निरर्थक बात, - कर्तव्य, - करणीय (वि० ) नियमतः उचित या आवश्यक (व्यम् - यम् ) कर्तव्य, दायित्व, 'ता, कार्यता, - कृत्यता कोई भी उचित या आवश्यक कार्य, - कतव्यतामूढः किं कर्तव्य विमूढ, असमंजस में पड़ा हुआ, व्याकुल, हतबुद्धि, मात्र (वि०) इतने विस्तार वाला, या ऐसे गुण का, वृशम् 1. घटना, बात 2. कथा, कहानी । इतिह ( अव्य० ) [ इति एवं ह् किल इ० स०] ठीक इस प्रकार, बिल्कुल परंपरा के अनुरूप ।
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