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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३५ ) (काकतालीयं नाम ---मा० ५, 'अहो वत' प्रकट करता। --पुरुषिका-तु० आहोपुरुषिका। है (क) दया, तरस तथा खेद अहो बत महत्पार्प अह्नाय (अव्य०) [ह्न+घञ वृद्धि, पृषो० वस्य यत्वम् ] कर्तुं व्यवसिता वयम्-भग० ११४४, (ख) संतोष-अहो तुरन्त, शीघ्र, फौरन-अह्नाय सा नियम क्लममुत्सवतासि स्पृहणीयवीर्य:-कु० ३।२० (मल्लि• यहाँ 'अहो सर्ज-कु० ५।८६. अह्नाय तावदरुणेन तमो निरस्तम् वत' को संबोधन के रूप में ग्रहण करता है (ग) -रघु० ५७१ कि०.१६।१६ । संबोधित करना, बुलाना (घ) थकावट । सम० । अहोक वि०नि० ब० कप] निर्लज्ज, ढीठ-क: बौद्ध भिक्षुक । आ आ देवनागरी वर्णमाला का द्वितीय अक्षर । आकत्थनम् [आ+कत्थ्+ल्युट ] डींग मारना, शेखी आ 1. विस्मयादिद्योतक अव्यय के रूप में प्रयुक्त होकर बघारना । निम्नांकित अथ प्रकट करता है (क) स्वीकृति 'हाँ' | आकम्पः [ आ+कम्प---घा ] 1. मदु कंप 2. हिलना, (ख) दया 'आह' (ग) पीडा या खेद (बहुधा--आस् . काँपना। या आ: लिखा जाता है) हा 'हंत' (घ) प्रत्यास्मरण | आकम्पनम् [ आ--कम्प् + ल्युट ] कंपयुक्त गति, हिलना । 'अहो-ओह' आ एवं किलासीत्-उतर०६ (च) कई आकम्पित, आकम्प्र[आ+कम्प-+क्त, र वा] हिलता बार केवल अनुपुरक के रूप में प्रयुक्त होता है --आ हुआ, कांपता हुआ, हिला-डुला, विक्षब्ध । एवं मन्यसे 2. (संज्ञा और क्रियाओं के उपसर्ग के आकरः [ आकुर्वन्त्यस्मिन्-आ+-+घ ] 1. खान-मणिरूप में) (क) 'निकट' 'पाश्व' की ओर' 'सब ओर से'। राकरोद्भवः--रघु ०३।१८, आकरे पद्मरागाणां जन्म'सब ओर' (कुछ क्रियाओं को देखो) (ख) गत्यर्थक काचमणेः कुतः--हि० प्र० ४४ (आलं०) खान या नयनार्थक, तथा स्थानान्तरणार्थक क्रियाओं से पूर्व किसी वस्तु का समृद्ध साधन-- मासो नु पुष्पाकरः लगकर विपरीतार्थ का बोध कराता है ---यथा --विक्रम० २९, अशेषगुणाकरम् --भर्तृ० २।६५ कु. गम् =जाना, आगम आना, दा-देना, आदा-लेना २।२९, 3. सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ। 3. (अपा० के साथ वियुक्त निपात के रूपमें प्रयुक्त | आकरिक (वि.) [ आकर+ठन ] (राजा के द्वारा) होकर) निम्नांकित अर्थ प्रकट करता है :-(क) नियत व्यक्ति जो खान का अधीक्षण करता है । आरम्भिक सीमा, (अभिविधि), 'से', 'से लेकर' 'से दूर' | आकरिन् (वि.) [ आकर+इनि ] 1. खान में उत्पन्न, 'में से'--आमूलात् श्रोतुमिच्छामि-श० १, आ जन्मनः खनिज 2. अच्छी नसल का दधतमाकरिभिः करिभिः .... श०१५।२५ (ख) पृथक्करणोय या उपसंहारक | क्षत---कि० ५।७, । सीमा (मर्यादा) को प्रकट करता है ---'तक' 'जबतक | आकर्णनम् [आ+कर्ण- ल्युट् सुनना,कान लगा कर सुनना। कि नहीं' 'यथाशक्ति' 'जबतक कि'- आ परितोषा- आकर्षः [आ+कृष्+घा ] 1. खिचाव या (अपनी द्विदुषां श० ११२, कैलासात-मेघ ११, कैलास तक ओर) खींचना, 2. खींच कर दूर ले जाना, पीछे हटाना (ग) इन दोनों अर्थों को प्रकट करने में 'आ' या तो 3. (धनुष) तानना 4. प्रलोभन, सम्मोहन 5. पासे अव्ययीभाव समास में अथवा सामासिक विशेषण का रूप से खेलना 6. पासा या चौसर 7. पासों से खेलने का धारण कर लेता है-आबालम् (आबालेभ्यः)हरिभक्तिः , | फलक, बिसात 8. ज्ञानेन्द्रिय 9. कसौटी। कई बार इस प्रकार का बना हुआ समस्त पद अन्य आकर्षक (वि०) [आ+कृष्+ण्वुल ] खिंचाव करने समासों का प्रथम खण्ड बन जाता है-सोऽहमाजन्म सद्धा- वाला, प्रलोभक -...कः चुंबक, लोहचुंबक ।। नामाफलोदयकर्मणाम्, आ समुद्रक्षितीशानामानाकरथ- आकर्षणम् [आ+-कृष्--ल्युट ] 1. खींचना, खींच लेना, वर्मनाम् -- रघु ०२५, आगण्ड विलम्बि--श० ७।१७. सम्मोहन 2. पथभ्रष्ट करने के लिए फसलाना, 4. विशेषणों के साथ (कई बार संज्ञाओं के साथ) -- णी वृक्षों से फल फूल आदि उतारने के लिए किनारे लग कर 'आ' अल्पार्थवाची हो जाता है-आपांडुर। पर से मुड़ी हुई लंकडी, लग्गी। -ईषत्श्वे त, कुछ सफेद, आलक्ष्य --श० ७।१७, । आकषिक (वि.) [स्त्री०-की] [आकर्ष-ठन् ] चुंब आकम्पः-मदु कम्पन, इसी प्रकार 'आनोलारक्त' कीय, सम्मोहक । आं-तु० आम्। आकर्षिन् (वि.) [आ+ कृष ।-णिनि ] खींचने वाला आः 1.--तु० आम् 2. लक्ष्मी (आ) । (जैसे कि दूर की गंध)। For Private and Personal Use Only
SR No.020643
Book TitleSanskrit Hindi Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaman Shivram Apte
PublisherNag Prakashak
Publication Year1995
Total Pages1372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size37 MB
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