________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 1157 ) 0 स्वदनम् के कृ०) विशेष जो श्राद्ध माता है और पक्का 3. स्वतन्त्र 4. अच्छा करने वाला, स्वस्थ, शुगः-- रघु० 3 / 54 2. उपभोग करना -मेघ० नीरोग, आराम देना, सुखद स्वस्थ एवास्मि-मा० 87 / 4, स्वस्थ को वा न पण्डितः—पंच० 13127, दे० स्वदनम् [ स्वद्+ल्युट ] चखना, खाना / 'अस्वस्थ' भी 5. सन्तुष्ट, प्रसन्न, (-स्थम्) (अव्य०) स्वदित (भू० क० कृ०) [ स्वद्+क्त ] चखा गया, खाया आराम से, सुख पूर्वक, शान्ति से, स्थानम् अपनी गया, तम उदगार विशेष जो श्राद्ध में पितरों को जन्मभूमि, अपना निजी आवास स्थल-नकः स्वस्थान- पिंडदान करने के पश्चात उच्चारित होता है और मासाद्य गजेन्द्रमपि कर्पति ...पंच. 3246, -हस्त जिसका अर्थ है भगवान् करे, यह पदार्थ आपको अच्छा अपना निजी हाथ या लिखाई, आत्मलेग्य, दे० 'हस्त' के लगे, स्वादिष्ट लगे'--मनु०३।२५१, 254 / अन्तर्गत, हस्तिका कुल्हाड़ी,-हित (वि० ) अपने स्वधा [स्व+आ, पृपो० दस्य धः] 1. अपना निजी लिए हितकर, ( -तम् ) अपना निजी लाभ, अपना स्वभाव या निश्चय, स्वतः स्फूर्तता 2. मृत पूर्वपुरुषों कल्याण / -पितरों-को प्रस्तुत की गई हवि की आहुति स्वक (वि) | स्व+अकन् ] अपना निजी, अपना / -स्वधासंग्रहतत्पराः रघु० 266, मनु० 9 / 142, स्वकीय (वि०) / स्वस्य इदम्-स्व-छ, कुक आगमः ] | याज्ञ. 11102 3. मूर्त पितरों को प्रम्सुन किया 1. अपना निजी, अपना 2. अपने परिवार का / भोजन 4. अन्न या आहुति 5. माया या सांसारिक स्वङ्ग (भ्वा० पर० स्वङ्गति) जाना, हिलना-जुलना / भ्रम, अव्य. पितरों के सम्मुख आइति प्रस्तुत करते स्वङ्गः / स्वग् ।-घञ ] आलिंगन / समय उच्चरित उद्गार, (संप्र० के साथ) पितृभ्यः स्वच्छ (वि.) / सुप्छु अच्छ:-पा० स०] 1. अत्यन्त स्वधा सिद्धा। सम० कर (वि.) पितरों के साफ, पारदर्शी, विशुद्ध, उज्ज्वल, अल्पपारभासी निमित्त आहुति देने वाला, कारः 1. स्वधा' नाम स्वच्छस्फटिक, स्वच्छ मुक्ताफलम-आदि 2. सफेद का शब्द-पूतं हि तद्गृहं यत्र स्वधाकारः प्रवर्तते, 3. सुन्दर 4. स्वस्थ, च्छः स्फटिक,-च्छम् मोती। प्रियः अग्नि, आग,-भुज (पुं०) 1. मृत या देवत्व सम० ----पत्रम् तालक, सेलखड़ी,--बालुकम् विशुद्ध ___ को प्राप्त पूर्वपुरुप 2. देवता, देव / खड़िया,---मणिः स्फटिक। स्वधितिः (पुं०, स्त्री०) स्वधितो [स्ववा+क्तिच्, स्त्रियां स्वज (भ्वा० आ० वञ्जते. इकारान्त उकारान्त उपसर्गों ___ ङीष् च] कुल्हाड़ी। के पश्चात् स्वऊ के स् को प् हो जाता है) 1. आलि- स्वन् (म्वा० पर० स्वनति) 1. शब्द करना, कोलाहल गन करना, कौली भरना—कयाचिदाचुम्ब्य चिराय करना,-पूर्णाः पेराश्च सस्वनु:-भट्टि० 1413, वेणवः सस्वजे-भामि० 21178, पर्यश्रस्वजत मुनि चोप- कीचकास्ते स्थर्ये स्वनन्त्यनिलोद्धता:- अमर० 2. गाना, जनी-रघु० 13170 2. घेरना, मरोड़ना, परि-", प्रेर० (स्वनयति-ते) 1. गुजाना 2. शब्द करना आलिंगन करना---वत्से परिष्वजस्व मां सखीजनं च 3. अलंकृत करना (इस अर्थ में 'स्वानयति')। . 04, भामि० 21178 / / स्वनः [स्वन् +अप] शब्द, कोलाहल-शिवाघोरस्वना स्वठ् (चुरा० उभ०. स्व (स्वा) ष्यति-ते) 1. जाना पश्चाद् बुबुधे विकृतेति ताम्-रघु० 12 / 39, शंख2. समाप्त करना। स्वन: आदि। सम० उत्साहः गेंडा। स्वतस् (अव्य०) [ स्व+तसिल ] अपने आप, स्वयम् स्वनिः [स्वन् + इन्] ध्वनि, कोलाहल / , (निजवाचक के अर्थ में प्रयुक्त)। स्वनिक (वि.) स्वन+ठक] ध्वनि करने वाला-जैसा स्वत्वम् | स्व+त्व ] 1. अपनी विद्यमानता 2. स्वामित्व, कि 'पाणिस्वनिकः' (जो अपने हाथों से तालियां स्वामित्व के अधिकार / बजाता है) में। स्वद् i (भ्वा० आ० स्वदते, स्वदित) 1. पसन्द किया | स्वनित (भ० क० कृ०) स्विन्+क्त] ध्वनित, शब्दाय. जाना, मधुर होना, स्वाद में रुचिकर होना (संप्र० | मान, कोलाहल करने वाला, तम् बिजली का शोर, के साथ)-यज्ञदत्ताय स्वदतेऽपूपः-काशिका, अपां हि बिजली की गड़गड़ाहट, तु० 'स्तनित'। तृप्ताय न वारिधारा स्वादुः सुगन्धिः स्वदते तुपारा | स्वप् (अदा० पर० स्वपिति, सुप्त, भाववा० सुप्यते, इच्छा० -नै० 3193, सस्वदे मुखसुरं प्रमदाभ्यः शि० 10 // सुपुप्सति) (कभी-कभी भ्वा० उभ० स्वपति-ते) 23 2. स्वाद लेना, रस लेना, खाना 3. प्रसन्न करना सोना, नींद आ जाना, सोने जाना-असंजातकिण4. मधुर करना। स्कन्धः सुखं स्वपिति गौर्गडि:-काव्य. 10, इतः ii (चुरा० उभ० या प्रेर० स्वादयति-ते) 1. चखाना, स्वपिति केशवः भतं० 2176 2. तकिये का सहारा खाना 2. रस लेना 3. मधुर करना, आ 1. चखना, लेना, विश्राम करना, लेटना, आराम करना 3. तल्लीन 'खाना ( अलं० से भी )--पपावनास्वादितपूर्वमा- होना--भामि० 4.19, प्रेर० (स्वापयति-ते) सुलाना, For Private and Personal Use Only