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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप । चाहिये। विशेष विधि को इस जगह उपयोगी न होने से नहीं लिखो है। भगवान् इन्ट्रनन्दि पूजासार में लिखते हैं:जैनक्रमाजयुगयोगविशुद्धगन्ध सम्बन्धबन्धुरविलेपपवित्रगात्रः । तेनैव मुक्तिवश कृत्तिलकं विधाय श्रीपादपुष्षधरणं शिरसा वहामि ॥ अर्थात्-जिनभगवान् के चरण कमलों पर चढ़ने से पवि. वगन्ध के सम्बन्ध से मनोहर विलेपन करके पवित्र शरीर वाला मैं, उसो चन्दन से मुक्ति के कारण भूत तिलक को करके चरणों पर चढ़े हुवे पुष्यों को मस्तक पर धारण करता हूं। यो यस्तिलक में भगवत्सोमदेव महाराज लिखते हैं:पुष्पं त्वदीयचरणार्चनपौठसङ्गा___ चूणामणी भवति देव जगत्रयस्य । अस्पृश्यमन्यशिरसि स्थितमप्यतस्ते को नाम साम्यमनुशास्तु रवीश्वराद्यैः ॥ अर्थात्-हे भगवन् ! तुम्हारे चरणों को पूजन के सम्बन्ध से पुष्प भो तीन जगत का चडामणी होता है। और दूसरों के मस्तक पर भी चढ़ा हुआ अपवित्र हो जाता है । इसलिये इस संसार में ऐसा कौन पुरुष है जो सूर्यादि देवों को आपके समान कह सके । अर्थात् जगत में आपको समानता कोई नहीं कर सकता। For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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