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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ संशयतिमिरप्रदीप । दयामूलः । सा च निष्कारणपरदुःखप्रहाणेच्छा । एकेन्द्रियादिस्थावरस्त्रसानां निस्पृहतयाऽभयदानं वा तच प्रयत्न कृतक्रिया हेतुकः । ताश्च द्विविधा नित्या नैमितिकाश्च । आद्यास्तु शय्योत्थानसामायिकमलोत्सर्गदन्तधावनस्नान सन्ध्यातपर्णयजनादिका । नैमिनिकाश्चाऽष्टाह्निकसर्वतोभद्र शान्तिप्रतिष्ठादिमहोत्सवरूपति। __ अर्थात्-संसार संवन्धी जन्म, जरा, रोग, शोक, भयादि अनेक प्रकार के असह्य दुःखों से कम्पित ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के लिये धर्म का श्रवण करना कल्याण का कारण है। यह हरेक धर्म वालों को माननीय है । वह धर्म दया स्वरूप है और किसी प्रकार की इच्छा न रख कर दूसरों के दुःखों के दूर करने को दया कहते हैं । अथवा पृथ्वी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि एकेन्द्रिय और द्विद्रियादि त्रसजीवों के लिये अपेक्षा रहित अभयदान का देना है । वह अभयदान प्रयत्न पूर्वक की हुई क्रियाओं का कारण है । क्रिया नित्य और नैमित्तिक इस तरह दो प्रकार की है । शय्या से उठना सामायिक का करना, शौचजाना, दन्तधावन करना, तथा स्नान, सन्ध्या आचमन, तर्पण पूजनादि कर्म करना ये सव नित्य क्रिया में गिणे जाते हैं। और अष्टान्हिक पूजन, सर्वतोभद्र तथा शान्तिविधान, प्रतिष्ठादि महामहोत्सव दूसरी नैमित्तिक क्रिया के विकल्प है। श्रीत्रिवर्णाचार में लिखा है किःतोयेन देहद्वाराणि सर्वतः शोधयेत्पुनः । आचमनं ततः कार्य त्रिवारं प्राणशुद्धयेती ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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