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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप। १०१ पात्र होना पड़ता है । इसे वही लोग विचार जो लौकिक विधि को मिथ्यात्व की कारण बताते हैं । श्री भगवत्सोमदेव का इस विषय में कहना है:सर्व एव हि जनानां प्रमाणं लोकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्व हानिनयत्र न व्रतदूषणम् ।। अर्थात् -जिस विधि के स्वीकार करने से नतो सम्यक्त्व में किसी प्रकार की बाधा पहुंचे और न अंगीकार किये हुवे वृतों में दोष आकर उपस्थित हो ऐसी सम्पूर्ण लौकिक क्रियायें जैनियों को प्रमाण मानने में किसी तरह की हानि नहीं है। जब आचार्यों की इस तरह आज्ञा मिलती है तब वहिः शुद्धि के लिये लौकिक क्रियाओं का ग्रहण करना किसी तरह अनुचित नहीं कहा जा सकता। आचमन के सम्बन्ध में पूजासार में यों लिखा है: आचम्य प्रोक्ष्य मंत्रेण गुर्वर्ण्य तर्पणं चरेत् । एवं मध्याह्नसायाझेऽप्यायः शौचं समाचरेत् ॥ मंत्र पूर्वक आचमन, शिरका सिञ्चन और पञ्च परमेष्टी का तर्पण करना चाहिये । इसी तरह प्रातः काल, मध्याहू काल और सायं काल में भी शौच क्रिया उत्तम पुरुषों को करनी चाहिये। तथा भद्रबाहु स्वामी ने संहिता में आचमन तर्पणादि को नित्य कर्म बतलाया है:___ अथ चातुर्वर्णीयानां सांसारिकजन्मजरादिदुःख. कम्पितानां सद्धर्मश्रवणं धर्मः श्रेय इति सर्वसम्मतम् । धर्मश्च For Private And Personal Use Only
SR No.020639
Book TitleSanshay Timir Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherSwantroday Karyalay
Publication Year1909
Total Pages197
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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