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हरि दामोदर वेलणकर गुम्फित “जिनरत्नकोश" में हुआ है। वृत्तियों में सर्वश्रेष्ठ व प्राचीन "वृहत्वत्ति" है, जिसका प्रणयन प्रकाण्ड पंडित और शास्त्रार्थी श्रीजिनपतिसेरिजी म. द्वारा हुआ। यह वृत्ति क्या है ? एक प्रकार से महाभाष्य है । इस में आचार्य महाराजने अपने सैद्धान्तिक ज्ञानबल से तर्कयुक्त शैली में, सुन्दर रूप से मूल ग्रन्थगत विषय का समर्थन किया है।
__ प्रस्तुत संस्करण तैयार करने में निम्न हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया है, जिन का परिचय इस प्रकार है
प्रति परिचय(१) A संघपट्टक-अचूरि, साधुकीर्ति गणि रचित, रचनाकाल सं. १६१९ ।
यह " प्रति " मुनि कान्तिसागरजी के निजी संग्रह की है। पत्र ६, त्रिपाठ, जिस का चित्र इस ग्रन्थ में दिया जा रहा है। इस की लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है
“ सं. १८५३ वर्षे कार्तिक कृष्णपक्षे पश्चम्या कर्मवाव्यां ॥पं.॥ भीमविजय मुनिना लिलेखि श्री फलवर्द्धिकायां चतुर्मासी चके
॥ श्रीरस्तु ॥ B संघपदृक-अवचूरि,
यह " प्रति" बाबू पूर्णचंदजी नाहर के संग्रह से उनके सुयोग्य-पुत्र राष्टसेवी श्री विजयसिंहजी नाहर की उदारता से प्राप्त हुई थीं । वि. सं. २००३-४ के हमारे कलकत्ता चतुर्मास के सयय इस की प्रतिलिपि करली गयी थी । प्रति सुंदर
सुवाच्य व प्रायः शुद्ध है। (२) A संघपट्टक-टीका, कर्ता, लक्ष्मीसेन, रचनाकाल सं. १५१३,
इसकी “ प्रति " हमें रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बेंगाल के . प्रकाशक; श्रावक जेठालाल दलसुख, अमदावाद, सं. १९६३, बृहत्वृत्ति का यह भाषान्तर पठनीय ह और आज की स्थिति को देखते हुए विचारणीय भी।
२. आचार्य महाराज न केवल स्वयं अद्वितीय प्रतिभासम्पन्न विद्वान् ही थे अपितु विद्वत्परम्परा के निर्माता भी थे। आप के अधिकतर शिष्य उच्च कोटि के ग्रन्थ रचयिता व प्रखर पाण्डित्यपूर्ण विचारपरम्परा के सृष्टा थे।
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