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विष्णुश्रीकी कथा ।
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देवोंने भी पंचाश्चर्य वर्षाकर मंत्रीको पूजा। राजा इस वृत्तान्तको सुनकर और जिनधर्मके माहात्म्यको देखकर लोगोंसे कहने लगा----
जिनधर्मको छोड़कर और कोई धर्म दुर्गतिसे नहीं बचासकता और न इस संसारमें कुछ सुख ही है । तब क्यों न आत्महित किया जाये । यह विचार कर और संसार-विषयभोगोंसे विरक्त होकर उसने अपने शत्रुजय पुत्रको राज्य दे दीक्षा लेली । मंत्री अपना पद देवशर्मा पुत्रको देकर साधु होगया। इस समय और भी कई लोगोंने समाधिगुप्त मुनिके पास दीक्षा ग्रहण की। किसी किसीने केवल श्रावकोंके ही व्रत लिये। सोममभकी रानी सुप्रभा, मंत्रीकी स्त्री सोमा तथा
और कई स्त्रियोंने इस अवसर पर अभयमती आर्यिकाके पास दीक्षा ग्रहण की । कुछ स्त्रियोंने श्रावकके व्रत लिये।
यह कथा कहकर विष्णुश्रीने कहा-नाथ, यह सब वृत्तान्त मैंने प्रत्यक्ष देखा है, इसीसे मुझे दृढ़ सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई है। यह सुनकर अईदासने कहा-प्रिये, जो तूने देखा है, उसका मैं भी श्रद्धान करता हूँ, उसे चाहता हूँ और उसमें रुचि करता हूँ। अहंदासकी और और स्त्रियोंने भी ऐसा ही कहा। पर कुंदलता बोली-यह सब झूठ है। इसलिए न मैं इसका श्रद्धान करती, न इसे मैं चाहती और न इसमें मेरी रुचि ही है। राजा, मंत्री और चोरने विष्णुश्रीकी सब बातें सुनकर मनमें विचारा-विष्णुश्रीकी प्रत्यक्ष देखी बातको भी यह
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