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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष्णुश्रीकी कथा । ७९ है जो चन्दनीकी प्रत्यक्ष देखी हुई बातको भी झूठी बतला रही है । राजाने कहा - सबेरे ही इसको गधे पर चढ़ाकर निकाल शहर बाहर करूँगा । चोरने सोचा - निन्दकोंका ऐसा स्वभाव ही होता है जो दूसरोंके झूठे दोषोंको कहता है और सज्जनोंके सच्चे गुणों को भी नहीं कहता । वह पापी है और निन्दक है । किसीके यशका लोप करना प्राणवधसे भी बढ़कर है । ४ - विष्णु श्रीकी कथा | न्दनीकी कथा सुनकर अर्हदासने विष्णु श्रीसे कहा- प्रिये, अब तुम भी अपने सम्यक्त्वका कारण बतलाओ । विष्णुश्रीने तब यों कहना शुरू किया भरतक्षेत्रके वत्स नामक देशमें कौशाम्बी नगरी है । कौशाम्बीके राजाका नाम अजितंजय था । सुप्रभा अजितंजयकी रानी थी । राजमंत्रीका नाम सोमशर्मा था । सोमा इसकी स्त्री थी । सोमशर्मा दान करता पर कुपात्रोंको । एक वार कौशाम्बीमें समाधिगुप्त मुनिराज आये । वे गाँव बाहर उपवनमें एक मासके उपवासका नियम लेकर ध्यानमें बैठ गये । मुनिराजके आगमन से उपवनकी बड़ी शोभा हो गई । आम, अशोक, बकुळ, खजूर, आदिके For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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