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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्हद्दास सेठकी कथा । ५१ इधर चोरके साथ बात-चीत करते हुए पिताजीको उन पहरेदारोंने देख लिया । सो उन्होंने जाकर राजासे कह दिया कि महाराज, जिनदत्त सेठने उस चोरसे बात-चीत की है । राजाने कहा-वह राजद्रोही है। जरूर उसके पास चोरीका माल है । इस प्रकार क्रोधमें आकर जिनदत्त सेठको पकड़नेके लिए उसने अपने नौकरोंको भेज दिया। इधर सौधर्म-स्वर्गमें वह देव विचार करने लगा-मैंने यह देवपर्याय पुण्यसे प्राप्त की है । पुण्यके बिना ऐसी सामग्री प्राप्त नहीं हो सकती । आचार्य कहते हैं-मिष्ट भोजन, सुखपूर्वक शयन, अथवा सुगंधित फूलोंके हार, सुन्दर वस्त्र, स्त्री, आभूषण, हाथी, घोड़े, गाड़ी और ऊँचे ऊंचे मकान यह सब सामग्री बिना प्रयत्न ही मिल जाती है, जबकि पूर्वमें किये हुए पुण्यका उदय होता है । इसके बाद अवविज्ञानसे देवने सब वृत्तान्त जान कर विचारा-जिनदत्त सेठ मेरा धर्मोपदशक है । उसने मरते समय मुझे धर्मका उपदेश दिया था। उसके उपकारको मैं कभी न भूलूँगा। नहीं तो मेरे समान कोई पापी न होगा। क्योंकि जब एक अक्षरको पढ़ानेवालेको भूल जाना-उसके उपकारको न मानना पाप है, तो फिर जिसने धर्मका उपदेश दिया है, उसके उपकारको भूलना तो महा पापसे भी बढ़कर है । यह विचार कर वह देव अपने धर्मोपदेशक गुरु जिनदत्त सेठके उपसर्गको निवारण करनेके लिए डंडा लेकर सेठके दरवाजे For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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