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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यक्त्व-कौमुदी--- तसा धन जीता। उस धनको उसने भिखारियोंको बाँट दिया । दो पहरको जब उसे भूख लगी तो वह घरकी तरफ आने लगा। रास्तेमें उसे राजमहल पड़ा । रूपखरको राजमहलके रसोईघरकी ओरसे बहुत अच्छी सुगंध आई। वह मनमें विचारने लगा-मुझे कुछ मुश्किल नहीं है, फिर अपने अंजनको लगाकर अदृश्य होकर ऐसी सुगन्धित रसोई क्यों न खाई जाय ? ऐसा विचार कर उसने आखोंमें अंजन लगाया और फिर निडर होकर वह राजमहलमें चला गया । वहाँ उसने राजाके साथ भोजन करके अपने घरका रास्ता लिया । अंजनचोरने यह कायदा हर रोजके लिए बना लिया। हर रोज वह आता और राजाके साथ भोजन करके चला जाता । रूपखुरको इस प्रकार रोज रोज राजाके साथ भोजन कर जानेसे राजा धीरे धीरे दुबला हो गया। दिन एक मंत्रीने राजाको दुबला देखकर मनमें विचारा-इन्हें क्या खानेके लिए अन्न नहीं मिलता ? ये इतने दुबले क्यों हैं ? मेरी समझसे तो अन्नके न मिलनेसे ही ऐसी दशा हो गई है। नीतिकार भी ऐसा ही कहते हैं___ आखोंके बिना मुँहकी, न्यायके बिना राज्यकी, नमकके बिना भोजनकी, धर्मके बिना जीवनकी, चन्द्रमाके बिना रातकी और अन्नके बिना शरीरकी शोभा नहीं। निदान मंत्रीने राजासे पूछा-महाराज, आपका शरीर दुबला क्यों पड़ता जाता है ? इसका कारण कहिए । यदि For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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