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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्यक्त्व - कौमुदी - --- लेकर सहस्रकूट चैत्यालयमें पहुँचे । वहाँ उन्होंने मंगल पाठ । पढ़ा, भगवानकी पूजा की और बड़ा आनन्द मनाया। उस समय मौका पाकर वे स्त्रियाँ सेठसे कहने लगीं - स्वामिन, आपको दृढतर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति कैसे हुई ? कहिए । सेठने कहा-अच्छा पहले तुम्हीं बतलाओ कि तुम्हे सम्यग्दर्शन किस कारण से हुआ ? वे कहने लगीं - स्वामिन, आप हम लोगोंके पूज्य हैं, इसलिए पहले आप ही कहिए । फिर हम तो कहेंगी हीं । देखिए, अग्नि ब्राह्मणोंकी गुरु है, ब्राह्मण सब वर्णोंका गुरु है, पति स्त्रियोंका गुरु है तथा अतिथि सबका गुरु है । इस न्यायसे प्रथम आपहीको कहना चाहिए । इसी बीच अद्दास सेठकी सबसे छोटी कुंदलता नामकी स्त्री बोल उठी - नाथ, ऐसे आनन्ददायक और सबको प्यारे कौमुदी - महोत्सवको छोड़कर यह भगवानकी पूजा, उपवास, तप आदिक किस लिए किया जा रहा है ? सेठने उत्तर दिया-प्रिये, हम अपने परलोकके सुधारनेके लिए यह सब पुण्य-धर्म कर रहे हैं । कुंदलताने कहानाथ, परलोक देख कर कोई आया है क्या ? अथवा संसार में किसने धर्मका फल देखा भी है ? हाँ यदि पुण्यका फल इस लोक और परलोकमें दिखाई देता हो तब तो यह देवपूजादिक करना युक्तियुक्त है-ठीक है; नहीं तो व्यर्थ है । यह सुन सेठ कहने लगे- पुण्यादिकका परलोकमें जो फल होता है वह तो दूर रहे, पर धर्मका फल मैंने प्रत्यक्ष देखा है, उसे सुन । For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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