SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्युल्लताकी कथा । marmarammar अच्छा है। सेठने कहा-जिसको राग-द्वेष नहीं है उसके लिए तो घर ओर वनमें भेद ही नहीं है । उसको तो जैसा घर तैसा ही वन । नीतिकारने कहा है-रागी मनुष्योंको वनमें भी दोष उत्पन्न हो जाते हैं और वैरागी घरहीमें पाँचों इन्द्रियोंका दमन कर सकता है । जो निन्ध कार्य में प्रवृत्त नहीं है और राग-द्वेषसे रहित है, उसको घर ही तपोवन है । इस प्रकार समझा-बुझाकर कुन्तलको सेठ अपने घर ले आया। एक आदमीने कुन्तलकी धूर्तताको पहचान लिया । वह सेठसे बोला-सेठजी, यह ब्रह्मचारी नहीं किन्तु मायाचारी है-बड़ा बना हुआ बगुला है। इसका तपश्चरणादिक सब छल मात्र है । याद रखिए, यह आपका घर-बार लूट-लाट कर भाग जायगा । यह सुनकर सेठने कहा-यह जितेन्द्रिय है। इसकी निन्दा न करनी चाहिए । संसारमें जितेन्द्रिय पुरुष बड़े ही दुर्लभ हैं। ऐसे लोगोंकी निन्दा करनेवाला पापी कहलाता है । यह देख ढौंगी कुन्तल बोला-सेठजी, इस धर्मात्मा पर क्रोध करनेसे कुछ लाभ नहीं । मायावीकी अपने निन्दकके प्रति ऐसी निरीहता देखकर सेठने विचारा-यह ब्रह्मचारी बड़ा ही सत्पुरुष है। अपनी निन्दा करनेवाले पर भी क्रोध नहीं करता और न प्रशंसा करनेवाले पर प्रसन्न ही होता है। सेठके पासमें बैठे हुए लोग भी ऐसा ही कहने लगे कि इन महात्मामें तो अभिमान जरा भी नहीं है । मायावी कुन्तल बोला-जो सर्वज्ञ होता है For Private And Personal Use Only
SR No.020628
Book TitleSamyaktva Kaumudi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsiram Kavyatirth, Udaylal Kasliwal
PublisherHindi Jain Sahityik Prasarak Karayalay
Publication Year
Total Pages264
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy